शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

एक कोशिश

  कहानी
                           
 एक कोशिश
                            
     पवित्रा अग्रवाल

    अंजना कार पार्क करके अस्पताल में प्रवेश कर ही रही थी कि तभी डाक्टर रमेश मिल गए और लगभग रोकते हुए बोले -- "अंजना जी अभी थोड़ी देर पहले अस्पताल में एक ब्रेन डैड  का केस आया है...करीब सत्ताईस अट्ठाईस साल का पुरुष है जिसका एक्सीडेंट हो गया था उसका  ब्रेन डैड  हो चुका  है अभी सपोर्ट सिस्टम पर ही है और उसका दिल अभी धड़क रहा है ।''
 "क्या डाक्टर उसके जीवित होने की कोई उम्मीद नहीं है ?''
  "सवाल ही नहीं है।..बस जब तक दिल धड़क रहा है तब तक उसके जीवित होने का भ्रम पाला जा सकता है ,इस से ज्यादा कुछ नहीं।उसके साथ उसकी वृद्धा माँ ,पत्नी व एक साल का बेटा है..उसके आफिस के कुछ लोग भी साथ हैं..पत्नी पढ़ी लिखी लगती है, आप तो सोशल वर्कर हैं और पहले भी आप कुछ लोगों को अंग दान के लिए प्रेरित कर चुकी हैं।.. उसे भी अपने पति के अंग दान करने के लिए प्रेरित करने का प्रयास करिए शायद सफलता मिल ही जाए..यदि वह तैयार हो जाती है तो पाँच छह लोगो का भला हो जाऐगा ..उसकी दोनो किडनी तो इसी अस्पताल में जीवन और मौत के बीच झूल रहे दो पेशेन्ट्स जिस में आपका भाई राहुल भी है, के काम आजायेंगी ..उन दोनों का ब्लड ग्रुप तो उस से मिलता है..अन्य टैस्ट भी कर लेंगे ..इसी ब्लड ग्रुप के दो हार्ट पेशेन्ट ग्लोबल हास्पीटल में  हार्ट ट्रान्सप्लान्ट के लिए एडमिट हैं उनमें से किसी एक के काम तो अवश्य आजायेगा। ...आप अपनी तरफ से एक कोशिश करके देख लीजिए..
 ''ओ. के. डाक्टर मैं यह कोशिश जरूर करूँगी।''
 अंजना उस व्यक्ति की पत्नी से मिली जिस की ब्रेन डैथ हो चुकी है।उसका नाम राधा था।
 उसने राधा को सांत्वना दी उस से उसके घर-परिवार की जानकारी ली फिर उस से कहा -"राधा तुम्हारे पति का ब्रेन डैड हो चुका लेकिन दिल अभी धड़क रहा हैं किन्तु सपोंर्ट -सिस्टम निकालते ही दिल भी धड़कना बंद कर देगा।क्या तुम चाहती हो कि तुम्हारा पति मर कर भी जीवित रहे ?''
 "वो कैसे ?'
 "उसका दिल किसी और के शरीर में धड़के,उसकी आँखों से कोई दो नेत्र हीन व्यक्ति यह दुनियाँ देख सकें...उसकी किडनी के ट्रान्सप्लान्ट से एसे दो लोग जीवन पा जायें जो किडनी खराब हो जाने की वजह से जल्दी ही मौत के मुँह में समाने वाले हैं ।'
 उसकी माँ तड़प उठी थी--"मेरे बेटे के शरीर की इतनी बेकदरी मत करो।'
 "माँ जी, शरीर तो जल कर राख बन जाता है।जलने से पहले यदि इस शरीर के अंग मौत का इंतजार कर रहे कुछ मरीजों को जीवन दे सकें तो आप ही बताइए इस से बड़ा दान और क्या होगा।क्या आप नहीं चाहेंगी कि आप द्वारा अंग दान की स्वीकृति मिलने पर किसी का बेटा,किसी के माँ- बाप या भाई बहन को नई जिन्दगी मिल जाए ?'
    आफिस के लोगों ने अंजना की बात का समर्थन करते हुए कहा - "हाँ माँ जी मैडम सही कह रही हैं पिछले दिनो टी.वी पर भी दिखाया गया था कि किसी मृत व्यक्ति का दिल एक पेशेन्ट को लगा कर उसकी जिन्दगी बचाली गई थी।...डाक्टर साहिबा एक बात बताइए--क्या हर मृत व्यक्ति के अंगो का दान किया जा सकता है ?'
    "पहले तो मैं आपको यह बता दूँ कि मैं डाक्टर नहीं हूँ,एक सोशल वर्कर हूँ ...
दूसरी बात हर मृत शरीर के  अंगों का दान नहीं किया जा सकता । बहुत कम लोगों को यह अवसर प्राप्त होता है यानि कि किसी चोट या दुर्घटना वश जब किसी को डाक्टर दिमागी तौर पर मृत घोषित का देते है केवल उन्हीं के अंगो का दान किया जा सकता है।...हाँ अन्य मृत लोगो की आँखें दान की जा सकती हैं बशर्ते पाँच- छह  घन्टे की निश्चित अवधि के अन्दर कॉरनिया निकाल लिया जाये, एक मृत व्यक्ति दो अंधेरी जिन्दगी में रोशनी भर सकता है।..आप लोग मिल कर सोच विचार कर लीजिए।''
 ..कुछ रुक कर फिर अंजना ने कहा--" राधा तुम्हारा दुख मैं अच्छी तरह समझ सकती हूँ...कुछ वर्ष पूर्व मैं भी इस दौर से गुजरी हूँ...मेरे पति बालकनी से गिर गए थे । डाक्टर्स ने ब्रेन  डैथ घोषित कर दी थी ,उन लोगों के समझाने पर मैं अपने पति के अंगदान करने को तैयार हो गई थी..और उनके अंगो के प्रत्यारोपण के बाद जब मैं ने कुछ जिन्दगियों को जीते देखा तो मैं चमत्कृत हो गई थी।  मेरे पति बहुत सम्पत्ति छोड़ गए थे किन्तु हमारे कोई औलाद नहीं थी । समय काटना मुश्किल हो गया था फिर अपने कुछ मित्रों के सुझाव पर मैंने समाज सेवा की राह चुनी । अस्पताल और मरीजो की सेवा को अपना कर्म क्षेत्र बनाया ।...अब राधा निर्णय तुम्हें करना है कि तुम क्या चाहती हो..माँ जी क्या चाहती हैं।'
      "अंजना दीदी मैं चाहती हूँ कि कुछ डाक्टर्स मिल कर एक बार फिर मेरे पति का निरीक्षण करें यदि एक प्रतिशत भी उनके जीवित होने की संभावना है तो मैं इंतजार करूँगी ।यदि कोई आशा नहीं है तो आप जो ठीक समझें कर सकती हैं'- कह कर राधा बिलखने लगी थी.
 राधा के पति के दोस्तों की भी यही राय थी।   
 आप्रेशन द्वारा अंग निकाल कर मृत शरीर घर वालों को सोंप दिया गया था।अंजना अंतिम संस्कार तक राधा के साथ रही।..उसे एक ही संतोष था कि राधा पढ़ी लिखी है ,पति के आफिस में उसको नौकरी मिल जाएगी।
     राधा के घर से लौटते समय अंजना को राहुल  का ख्याल आगया ।अब तक तो उसका किडनी ट्रान्सप्लान्ट हो चुका होगा ,भगवान ने चाहा तो अब वह ठीक हो कर अपने घर जा सकेगा। राहुल के घर की बात याद आते ही उसे ध्यान  आया कि क्या अब उसके घर वालों को सूचित कर देना चाहिए..अब तक कितने परेशान हो चुके होंगे वो सब ,शायद राहुल को मरा हुआ ही मान चुके हों।यह सब प्रसंग याद आते ही वह अतीत की स्मृतियों में विचरण करने लगी ।
 करीब दो महीने पूर्व की बात है अंजना की राहुल से मुलाकात अस्पताल में हुई थी ।राहुल को बेहोशी की हालत में अस्पताल लाया गया था ।पता नहीं क्यों उसे देखते ही अंजना को अपने मृत भाई की याद आ गई थी ।
 उसके सामान में उसकी मेडीकल रिपोर्ट भी थीं जिस से यह आसानी से पता चल गया था कि  उसकी दोनो किडनी फेल हो चुकी हैं  और किडनी ट्रान्सप्लान्ट ही एक मात्र इलाज है और जब तक किडनी नहीं बदलेंगी तब तक जीवित रहने के लिए डायलेसिस पर निर्भर रहना होगा ।..डाक्टर्स के प्रयास से राहुल होश में आगया था ।
   राहुल के होश में आते ही उसने राहुल के घर का पता जानना चाहा ताकि उनको सूचित किया जा सके किन्तु राहुल ने खामोशी की चादर सी ओढ़ ली थी।निरन्तर प्रयास के बाद उसने बताया था कि किस तरह  वह घर से भाग कर आया है ।उसके इलाज में घर की सब जमा पूँजी खर्च हो चुकी है बस एक मकान बचा है।पत्नी का ब्लड ग्रुप उस से मेल खा रहा है और वह अपनी किडनी देने की जिद्द किये बैठी थी । उसके चार साल का एक बेटा भी है..वह किसी भी हालत में पत्नी की किडनी नहीं ले सकता.. उसने बड़े दुखी हो कर कहा था -" मैडम मेरी जिन्दगी का भरोसा नहीं है ,अपनी पत्नी की जिन्दगी भी खतरे में डाल दूँ तो मेरा बेटा तो अनाथ हो जायेगा ।दूसरी बात मेरे इलाज के लिए वह अपने एक मात्र सहारा उस मकान को भी गिरवी रख  देना चाहती हैं, आप ही बताओ बहन यदि मैं बच भी गया तो मेरे ठीक होते ही पैसे बरसने तो नही लगेंगे फिर आप्रेशन के बाद भी कम से कम पन्द्रह बीस हजार रुपए महीने की दवा मुझे खाते रहनी पड़ेंगी फिर भी जीवन कितना चलेगा कोई कुछ नही बता सकता ।''
    "आप ऐसा क्यों सोचते हैं बहुत से लोग अच्छी जिन्दगी जी रहे हैं।''
 "जरूर जी रहे होगे पर मैं अपने आँखों देखी बात कर रहा हूँ... हमारे कौम्पलैक्स में एक परिवार  रहता  था उनके कोई संतान नहीं थी। पत्नी ने पति को अपनी किडनी दी थी पर पति को किडनी सूट नहीं हुई उसकी मौत हो गई और कुछ दिन बाद पत्नी भी कही चली गई । सुना था बीमारी में उसने फ्लैट बेच दिया था ।'' 
 "लेकिन आपने घर क्यों छोड़ दिया ?'
 "न छोड़ता तो क्या करता ,पत्नी मुझे तिल तिल मरते हुये नहीं देख सकती थी,डायलैसिस भी क्या मुफ्त में होती है ? मैं एक पत्र छोड़ कर आया था कि मुझे ढ़ूंढ़ने की कोशिश मत करना ।..उसने तो मुझे मरा हुआ समझ लिया होगा पर आप लोगों ने मुझे अभी तो बचा ही लिया है..लेकिन कितने दिन बहन...?''
   दो महीने हो गए तब से राहुल  डायलैसिस पर है उसे देख कर अंजना को भी लगा इतने धन का मैं क्या करूँगी शायद प्रयास से कुछ जिन्दगी बचा सकूँ, बस तब से वह उसकी देख भाल कर रही है..पर राहुल ने अभी तक अपने घर वालों को खबर नहीं करने दी है ।...हे भगवान उसे यह किडनी सूट कर जाये और कोई नये काम्लीकेशन्स न हों सोचते हुए अंजना ने कार स्टार्ट की और अस्पताल की दिशा में चल दी।

      पवित्रा अग्रवाल
 ईमेल - agarwalpavitra78@gmail.com

मंगलवार, 16 अगस्त 2016

मैं भगोड़ी नहीं

                               



कहानी
                                         मैं भगौड़ी नहीं

                                                                                     पवित्रा अग्रवाल

       चम्पा बेसब्री  से अपने पति चरण सिंह का इंतजार कर रही थी। चरण सिंह के आते ही चम्पा ने  पत्र उसके हाथ में दे दिया।
 अनजानी लिखावट देखकर उसने पूछा, "यह किस का पत्र है ?'
 चम्पा राज भरे अंदाज में मुस्कुराई, "बूझो तो जानें ?'
 "नहीं, मैं इस लिखावट को नहीं पहचानता।'
 "यह खत मेरी सासू-माँ का है।'
 "क्यों मजाक करती हो ? मेरी ताई यानी तुम्हारी सासूजी को मरे तो पॉच साल बीत गए फिर उन्हें तो लिखना-पढ़ना भी नहीं आता था।'
   "अरे, यह पत्र तो मेरी सगी सासूमाँ यानी तुम्हारी अम्मा का है। तुम्हें तो शायद उनकी शक्ल भी याद नहीं होगी। उन्हें देखने व उनसे मिलने का मेरा बहुत मन है। अभी तक तो हमारे पास उनका पता नहीं था पर अब हम उनके पास जाएँगे।'
      "उनके पास जाने का नाम मत लेना। कोई जन्म देने से माँ नहीं बन जाती। उन्होने माँ का कौन सा फर्ज निभाया है ? तीन साल की उम्र में मुझे ताऊ-ताई के सहारे छोड़ कर किसी के साथ भागते वक्त उन्होंने मेरे बारे में एक पल के लिए भी नहीं सोचा था। उनको गए तीस साल हो गए, तब से एक बार भी पलट कर नहीं देखा कि मैं जिंदा भी हूँ या मर गया। अब इतने सालों बाद उन्हें मेरी याद आई है, जरूर कोई मतलब होगा।'
    "उस जमाने में विधवा विवाह का चलन नहीं था इसीलिए उनके चले जाने को गलत माना गया होगा।'
    "चम्पा, उन्होंने विवाह किया हो या न किया हो पर मेरा बचपन तो यही ताने सुनते बीता है कि इसकी माँ, इसकी ताई के भाई के साथ भाग गई थी। तब से ताई का वह भाई कभी अपनी बहन से भी मिलने नहीं आया।'
     "पता नहीं तुम्हारी अम्माँ की क्या मजबूरी रही होगी वर्ना ऐसे ही कोई औरत अपने इकलौते बेटे को छोड़ कर नहीं जाती। तुम्हें तो इकतरफा बात ही मालुम है...खैर पहले यह पत्र पढ़ लो।'
 उसने पत्र पढ़ना शुरू किया...
    "चरण सिंह को अपनी माँ रामदेवी का आशीर्वाद पहुँचे।
 बेटा,तीस साल अपनी छाती पर पत्थर रख कर तुझे भुलाए रखने की कोशिश करती रही लेकिन एक पल को भी नहीं भुला पाई। अभी कुछ दिन पहले अपने गाँव की एक बेटी इस गाँव में ब्याह कर आई है। बात करने पर उसी से पता चला कि पूरा गाँव ही नहीं बल्कि तू भी मुझ से नफरत करता है। मुझे वहाँ "भगोड़ी' के नाम से जाना जाता रहा है...
     उसी लड़की से पता चला कि तेरा ब्याह हो चुका है..तेरे दो बच्चे भी हैं। तू शहर में नौकरी करता है और तेरे ताऊ व ताई की मौत हो चुकी है। तू ने गाँव की जमीन व मकान बेच कर शहर में घर बना लिया है।
 उसी लड़की से मैंने तेरे शहर का पता मँगवाया है। तुझे एक बार देखने को मन तरस रहा है...बहू और बच्चों को लेकर आ जा। कोई माँ अपने बच्चे को नहीं छोड़ सकती। मजबूरियों की दलदल में फँस कर मुझे गाँव,घर व अपना बेटा छोड़ना पड़ा था। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे तू या कोई दूसरा मुझ से नफरत करे।
     तेरे यहाँ आने पर अपनी दुख भरी कथा तुझे सुनाऊँगी फिर भी तुझे लगे कि मैंने कोई

पाप' किया है तो कभी मेरी शक्ल मत देखना...एक बार मुझे सफाई देने का मौका दे। मुझे तेरा इंतजार रहेगा।
                      तेरी दुखियारी माँ, राम देवी।'

      तीस घंटे का ट्रेन और बस का सफर कर के चरण सिंह पत्नी व बच्चों समेत गाँव पहुँचा था। वहाँ रामदेवी नाम से उन्हें कोई नहीं जानता था। जग्गा की पत्नी रामदेवी बताने पर बुजुर्ग लोगों ने उनके दरवाजे तक पहुँचा दिया था। वहाँ वह "बुआ' के नाम से जानी जाती थीं। नई पीढ़ी के लोग तो उन्हें जग्गा की पत्नी के नाम से भी नहीं जानते थे।
     जब वे लोग उनके घर पहुँचे तो वह सिलाई- मशीन पर कुछ काम कर रही थीं। गाँव की तीन-चार औरतें उनके पास बैठी थीं। शक्ल से तो नहीं, उम्र के हिसाब से चरण सिंह ने अपनी माँ को पहचान लिया। वह अकेला जाता तो माँ भी उसको न पहचान पातीं। साथ में पत्नी व दो बच्चों को देख कर वह फौरन पहचान गर्इं।
       "चरण सिंह, मेरा बेटा', कह कर माँ ने उसे गले से लगा लिया। उनके आँसू बह रहे थे किंतु वह कुछ भी महसूस नहीं कर पा रहा था। माँ को एक बार देखने के मोह में वह आ तो गया किंतु मन में उनके प्रति गुस्से में कमी नहीं आई थी। माँ ने चम्पा व दोनों बच्चों को भी सीने से लगा लिया था।
     जल्दी ही पड़ोस के घर से उनके लिए खाना बन कर आ गया था। खा पी कर चरण सिंह बराबर की कोठरी में जाकर लेट गया। बच्चे भी उसके पास जाकर सो गए। चम्पा माँ के पास ही बैठी थी। उनके बीच हो रही बातचीत वह कोठरी में लेटा सुन रहा था।
   "अम्माँ, आप किन हालात में चुपचाप गाँव, अपना घर व इकलौता बेटा छोड़ आई थीं..यह तो मैं नहीं जानती लेकिन गाँव में आपके बारे में जो कुछ कहा जाता रहा है उस पर मुझे कभी विश्वास नहीं हुआ।'
 "बेटा,मैं चुपचाप घर से भाग कर नहीं आई थी। मेरी जेठानी को सब पता था। मेरे भागने की योजना उन्होंने ही बनाई थी। हाँ जेठजी को इस बारे में कुछ पता नहीं था।'
 "अम्माँ, आपकी आप-बीती सुनना चाहती हूँ।'
 "चरण सिंह का बापू बहुत अच्छा था, मुझे बहुत चाहता था। जेठ-जेठानी को कोई औलाद नहीं थी। वे चरण सिंह के बापू को अपने बेटे की तरह प्यार करते थे। मैं उन्हें अपने सास-ससुर जैसी ही इज्जत देती थी।....
 ब्याह कर गाँव आते ही मेरी खूबसूरती मेरी दुश्मन बन गई। घर का पानी मुझे मुहल्ले के कुँए से भर कर लाना पड़ता था। गाँव के सभी लड़के मुझे "भौजी' कह कर पुकारते थे और इसी नाते हँसी-ठट्ठा भी करते रहते थे। कई बार तो मुझे कुँए से पानी भी नहीं खींचने देते थे, खुद ही खींच देते थे। उनमें एक गाँव के चौधरी का बेटा किशन था। पहले तो वह ऐसे ही मजाक करता रहता था, बाद में छेड़छाड़ भी करने लगा। मुझे गलत रास्ते पर खींचने लगा। एक बार गलत हरकत करने पर मैंने उसको धक्का दे दिया था। तभी कहीं से मेरे पति आ गए। उन्होंने किशन को दो हाथ मार दिए और धमका कर चले आए। तभी से वह हमारा दुश्मन बन गया था। वह गुंडा था, पुलिस में भी उसका उठना-बैठना था।...
       गाँव में हमारी अनाज पीसने की चक्की थी। एक दिन चक्की से लौटते समय चरण सिंह के बापू ट्रैक्टर के नीचे आ गए। पुलिस उसको एक्सीडेंट मानती थी किंतु पूरा गाँव जानता था कि वह हत्या थी, पर गुंडों के डर से किसी ने गवाही नहीं दी। जेठजी ने भी बात को दबा देना ही सही समझा। वह कहने लगे, "जल में रह कर मगर से बैर करना अच्छा नहीं है। हमारे कोई औलाद नहीं है...छोटा भाई रहा नहीं। दो भाइयों के बीच अब यही एक ही औलाद है। अगर चरण सिंह को भी कुछ हो गया तो हम बरबाद हो जाएँगे। किशन का क्या है, वह तो गुंडा है, पैसे के बूते पर सजा से बचता रहेगा।'
     "जेठजी ने मेरा कुँए पर जाना भी बंद करवा दिया। पानी भरने के लिए एक नौकर रख लिया था। एक दिन वह नहीं आया तो जेठानी के साथ मैं पानी लाने चली गई। किशन भी वहाँ पहुँच गया। उसने मेरी जेठानी की भी शर्म नहीं की और बोला, "मर्द तो तेरा मर गया, मेरे घर बैठ जा, रानी बना कर रखूँगा।'
    तब  इच्छा तो हुई थी कि उसे झापड़ मार दूँ लेकिन जेठ जी की चेतावनी याद आ गई और मैंने खुद को रोक लिया।
   बस ऐसे ही दिन बीत रहे थे। जेठजी भी शराब पीने लगे थे। एक दिन नशे में मेरे कमरे में घुस आए और बोले- "चरणा की माँ, तुझे सफेद धोती में देखकर मेरा कलेजा मुँह को आता है। देख, तेरे लिए कितने सुंदर रंग की रेशमी साड़ी लाया हूँ। तू आज से सफेद कपड़े मत पहनना।'
 "वह बहक रहे थे। मैंने हाथ पकड़ कर उन्हें कोठरी से बाहर कर दिया और दरवाजा बंद कर के रात भर रोती रही। अभी तक तो घर के बाहर खतरा था पर अब मैं अपने घर में भी सुरक्षित नहीं थी।...पीहर जा नहीं सकती थी, वहाँ भाभी माँ को ही चैन नहीं लेने देती थी, मेरे जाने से तो वह भी बेघर हो जातीं। बस मरने को जी चाहता था। उन्हीं दिनों जेठानी का भाई जग्गा अपनी बहन के पास आने लगा था जो देखने- सुनने में तो अच्छा ही था। जेठानी का कहना था कि दूर गाँव में रह कर अच्छा कमाता है।
    "जग्गा के ऐबों के बारे में या तो जेठानी जी को पता नहीं था या उन्होंने मुझे बताया नहीं...लेकिन जेठानी को जेठजी के लक्षणों के बारे में पता लग गया था। वह मुझे जग्गा से शादी कर के गाँव छोड़ देने की सलाह बार-बार देने लगी थीं। उनका कहना था - "तू जग्गा से शादी करके दूसरा घर बसा ले। घर- बाहर से तेरी हिफाजत करना अब मेरे बस की बात नहीं है। चरण सिंह की तू चिंता मत कर। तुझे तो और बच्चे जो जाएँगे। चरणा को मैं अपनी औलाद की तरह पाल-पोस कर बड़ा कर लूँगी।'
 "मेरे जाने का सब इंतजाम जेठानी जी ने ही किया था। रातों रात उन्होंने पोटली में मेरे गहने, कपड़े, नकदी बाँध कर मुझे दे दिए और गाँव से चले जाने को कहा फिर भी मैं पुलिस के लिए एक चिट्ठी लिख कर डाक के डब्बे में डाल आई थी कि मैं अपनी इच्छा से शादी कर के जग्गा के साथ जा रही हूँ।'
 "जेठानी जी ने यह भेद जेठ जी को भी नहीं बताया कि मैं उनकी रजामंदी से जा रही हूँ। पर उन्हें मेरी असलियत चरण सिंह को बड़े हो जाने के बाद बता देनी चाहिए थी। मुझे मालूम है, गाँव में मुझे "भगोड़ी', "छिनाल' और न जाने कितने नामों से जाना जाता रहा है। यहाँ तक कि मेरा बेटा भी मुझ से नफरत करता है। मैं नहीं जानती कि तब मैंने गलत किया था या सही, बस इतना जानती हूँ कि मेरे भागने का कारण मेरी जवानी या देह सुख नहीं था।...
  "यहाँ  आकर भी लगा कि छली गई हूँ। एक खाई से बचाने के लिए मुझे दूसरी खाई में धकेल दिया गया था।'
 "यहाँ ऐसा क्या हुआ ?...क्या जग्गा भी आपको सताते थे ?'
 "मुझे यहाँ  आकर भी कभी कोई सुख नहीं मिला। जग्गा का एक दोस्त लाखन था जो डाकू था। उसने गाँव से मुझे यहाँ लाने में जग्गा की मदद की थी। मंदिर में हमारी शादी भी उसी ने कराई थी।भौजी -भौजी' कह कर मेरे आगे-पीछे घूमता था। उसकी भी नीयत मुझ पर खराब थी। मेरे सामने कई बार जग्गा से कह चुका था, "इतनी सुंदर जोरू को भगा कर लाने में मैंने भी तेरी मदद की थी, मुझे भी मेरा हिस्सा दे।'
    "एक दिन लाखन मेरे कमरे में घुस आया। मैं खटपट की आवाज सुन कर अचानक जाग गई। सामने उसे खड़ा देख कर मैंने अपनी दोनों टाँगें उठा कर उसे दे मारी तो उसका सिर दीवार से टकराया और खून बहने लगा। उस दिन तो मैं चंडी बन गई थी। लाखन की साजिश में मेरा पति भी शामिल था। मैंने हँसिया हाथ में उठा लिया था और दोनों को धक्के मार कर घर से बाहर निकाल दिया। शोर गुल सुनकर गाँव वाले भी जमा हो गए थे। उसके बाद से मैंने कभी जग्गा को अपने घर में नहीं घुसने दिया।'
 "अम्मा, अब वह कहाí हैं ?'
 "जेल में।...किसी डकैती व हत्या के सिलसिले में दोनों को उम्र क़ैद हो चुकी है। इन गाँव वालों ने मुझे अपना लिया है। मैं यहाँ पूरे गाँव की बुआ हूँ, सभी मेरी बहुत इज्जत करते हैं। इनके छोटे-मोटे झगड़े तो मैं यों ही सुलझा देती हूँ।.....
 
    अब मुझे ये लोग सरपंच बनाना चाहते हैं लेकिन मैंने मना कर दिया। अभी मैं इज्जत की जिंदगी जी रही हूँ, सरपंच बनते ही लोग मुझे कठपुतली की तरह नचाना चाहेंगे...मेरी सुख-शांति सब खत्म हो जाएगी... बिना किसी पद के ऐसे ही मुझ से जितना बन पड़ता है, दूसरों की मदद करने की कोशिश करती हूँ। मेरी सलाह मान कर ये लोग लड़कों को ही नहीं लड़कियों को भी पढ़ाने लगे हैं।'
 "अम्मा अब तो आपको हमारे साथ चलना होगा। हम आपको साथ लेकर ही जाएँगे।'
     "नहीं चम्पा, अब तो मुझे यहीं जीना है, यहीं मरना है...बस एक बार तुम सबको देखने को मन भटक रहा था। अपनी सफाई भी देना चाहती थी...मैं नहीं जानती कि मेरी आप बीती सुन कर चरण सिंह के मन में मेरे प्रति जमी नफरत कम होगी या नहीं या वह अब भी मुझे ही दोषी समझता रहेगा...किंतु मन का दुख कह कर सालों से जमा बोझ जरूर हलका हो गया है... जा, अब सो जा...बहुत देर हो गई है।'
      चरण सिंह ने यह सब कुछ सुना था किंतु चाहते हुए भी तब वह माँ के पास नहीं जा पाया।
 दूसरे दिन सुबह-सुबह चरण सिंह माँ के पास जाकर बोला, "अम्मा कितना दिन चढ़ गया, कब तक सोती रहोगी ? अब उठो भी...'
 चरण सिंह द्वारा "अम्मा' कहे जाने पर रामदेवी निहाल हो गई। बेटे से "अम्माँ' शब्द सुनने के लिए उसके कान तरस रहे थे। खुशी से एक बार फिर उसकी आँखों से आँसू झरने लगे।
 "यह क्या अम्मा, तुम रो रही हो ? अब तुम्हारे रोने के दिन गए...अब मैं इन आँखों में आँसू नहीं आने दूँगा। अब मैं आपको हमेशा के लिए अपने साथ ले जाऊँगा।'
 "दादी, आप नहीं चलेंगी तो हम यहीं भूख हड़ताल कर देंगे,' पोते ने कहा।
 "अम्मा, अब तो आपको चलना ही होगा," चम्पा ने भी कहा।
    "बेटा, मैं इस गाँव की मिट्टी में, यहाँ की जिंदगी में ऐसी रच बस गई हूँ कि अब यहाँ से उखड़ कर नई जगह, नए माहौल में अपने को ढाल नहीं पाऊँगी। यहाँ करने को मेरे पास बहुत कुछ है। यहाँ जिंदगी बेकार व बेमकसद नजर नहीं आती। शहर में मेरे पास करने को कुछ नहीं होगा...पर इतना वादा करती हूँ कि साल में एक बार कुछ दिनों के लिए तुम्हारे पास जरूर आया करूँगी। हर साल गर्मी की छुटिटयों में कुछ दिनों के लिए बच्चों को साथ ले कर तुम यहाँ आया करना मुझे अच्छा लगेगा। इस तरह मिलना-जुलना होता रहेगा।'
     "जैसी आपकी मर्जी...हम आपकी इच्छा के खिलाफ कुछ नहीं करना चाहते। कुछ दिनों के लिए ही सही, अभी तो मेरे साथ चल रही हो न ? देखो अब मेरी इस विनती को मत ठुकराना।'
 "ठीक है बेटा, मैं कुछ दिन को  तेरे साथ जरूर चलूँगी।' अम्मा ने मुस्कुराते हुए कहा।
 

ईमेल --  agarwalpavitra78@gmail.com



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शनिवार, 16 जुलाई 2016

अंतिम फैसला

कहानी

                                             अंतिम फैसला
                                                                       
                                                                                      पवित्रा अग्रवाल
             
          बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक अपनी माँ को आया देख कर मैं चौंक गई।...वह दो घंटे का बस का सफर तय करके अकेली आई थीं, इसलिए थकी-थकी और परेशान लग रही थीं।
         "माँ वहाँ सब ठीक तो हैं...आप अचानक कैसे आ गर्इं ? ...आने की आपने कोई सूचना नहीं दी।'
    "अचानक नहीं आई हूँ, तेरी अत्तम्मा (सास) का फोन आया था। उन्हीं के बुलाने पर आई हूँ। आश्चर्य है कि उन्होंने तुझे नहीं बताया ?...मेरे बहुत पूछने पर भी उन्होंने बुलाने का कोई कारण नहीं बताया। मैं तो तेरी राजी-खुशी का समाचार जानने को परेशान थी।स्वाति, तू ठीक तो है ? यहाँ तुझे कोई कष्ट तो नहीं है ?...तेरी अत्तम्मा कहाँ है ?...उन्होंने मुझे क्यों बुलाया है ?'
     "माँ आप सफर में थक गई होंगी, आप आराम करें। मैं अभी पानी लेकर आती हूँ, फिर चाय पीएँगे तब इत्मिनान से बैठ कर बात करेंगे।'
 "तेरी अत्तम्मा घर में नहीं है क्या ? नन्हीं भी दिखाई नहीं दे रही।'
    " अत्तम्मा इस समय घर पर नहीं है, किसी महिला मंडली की मीटिंग में गई हैं। तीन- चार घंटे में लौट आएँगी, नन्हीं सो रही है।'
   चाय पीते समय मुझे उदास देखकर माँ ने फिर पूछा था -" स्वाति बता न बेटी, तू यहाँ खुश तो है ?...तेरी अत्तम्मा ने मुझे क्यों बुलाया है ?'
     "क्या बताऊँ माँ, जब से मेरे पुन: गर्भवती होने की बात उन्हें पता चली है, तभी से वह मेरे पीछे पड़ी हैं कि मैं वह टेस्ट करवा लूँ, जिससे यह ज्ञात हो जाता है कि आने वाली संतान लड़का है या लड़की। यदि गर्भ में लड़की है तो वह गर्भपात करा देना चाहती हैं।'
 "क्यों ?'
     "क्योंकि वह बेटा चाहती हैं। माँ तुम्हें तो मालूम है कि नन्हीं का जन्म ऑपरेशन से हुआ था। डॉक्टर के अनुसार दूसरे बच्चे का जन्म भी ऑपरेशन से ही होगा। डॉक्टर ने यह सलाह दी थी कि तीसरे बच्चे के बारे में हमें नहीं सोचना चाहिए वर्ना मेरी जान को खतरा हो सकता है। अब ये दूसरी संतान भी यदि बेटी ही हुई तो वह गर्भपात कराने की जिद्द किए बैठी हैं।'
        "इस गर्भपात के बाद पुन: गर्भ धारण करने पर परीक्षण से फिर बेटी होने की बात पता चली तो वे क्या करेंगी ?'
 "करना क्या है, वह उसे भी जन्म नहीं लेने देंगी, यह मैं जानती हूँ।'
 "वेंकट क्या चाहते हैं ?'
    "व्यक्तिगत रूप से वह क्या चाहते हैं, यह तो मैं नहीं जानती लेकिन अभी तो वह भी मुझे यही सलाह दे रहे हैं कि माँ की बात मान कर मैं घर में आए इस तनाव को समाप्त कर दूँ।'
 "तेरी अत्तम्मा ने मुझे क्यों बुलाया है ...मुझसे वह क्या चाहती है ?'
      "माँ मुझे तो यह तक नहीं बताया गया कि उन्होंने आपको बुलाया है। मैं समझती हूँ कि आपको इसीलिए बुलाया होगा ताकि आप मुझे समझाएँ व दबाव डालें कि मैं उनकी बात मान कर भ्रूण परीक्षण करा लूँ और जरूरत पड़े तो गर्भपात भी।'
 "तू क्या चाहती है ?'
       "मैंने तो साफ इन्कार कर दिया। गर्भपात की बात तो बाद में उठेगी, मैं तो ये परीक्षण भी नहीं कराऊँगी। नन्हीं के जन्म पर वेंकट तो बहुत खुश थे, लेकिन अत्तम्मा थोड़ी निराश थीं। उन्होंने तभी एलान कर दिया था कि दूसरी संतान तो बेटा ही होना चाहिए और अब उन्हें बेटा ही चाहिए, चाहे उन्हें इस अजन्मे शिशु की बलि लेनी पड़े।'
     "स्वाति, तेरी अत्तम्मा तुझे समझाने के लिए मुझ पर दबाव डालेंगी।...मैं तो बड़ी दुविधा में पड़ गई हूँ।...बता मुझे क्या करना चाहिए ?'
     "माँ वह आपसे मुझे समझाने के लिए कहेंगी, आप क्यों बुरी बनती हैं ? आप उनके सामने ही मुझे समझा देना, मानना न मानना तो मेरे हाथ में है।...यह तय है कि चाहे मुझे घर छोड़ना पड़े, मैं यह परीक्षण नहीं कराऊँगी।...बस एक बात आप भी बता दो माँ, यदि मजबूरी में मुझे यह घर छोड़ना पड़ा, तो बच्चे के जन्म लेने के कुछ महीने बाद तक क्या आप मुझे अपने घर में आसरा देंगी ? बाद में मैं कोई काम प्रारंभ करके सब सँभाल लूँगी।'
     "स्वाति, तेरी माँ का घर तेरे लिए हमेशा खुला है फिर भी बात को सँभालने की कोशिश करना। घर छोड़ने की नौबत न  आए तो अच्छा है। मेरी इस बात को गलत मत समझना।...वैसे तू मेरे पास आ भी गई तो तेरे पिता इतना छोड़ कर गए हैं कि तुझे कोई अभाव नहीं होने दूँगी।'
     "माँ तुम्हारी बातों से मुझे बहुत बल मिला है। मैं कोशिश यही करूँगी कि समस्या सुलझ ज़ाए और मुझे घर न छोड़ना पड़े।'
 माँ को आया देखकर अत्तम्मा खुश हो गर्इं थी ।
       मैं जानबूझ कर उनके बीच से हट गई थी किंतु उनकी बातें मैं अपने कमरे में बैठ कर भी सुन पा रही थी। अत्तम्मा की पूरी बातें सुनकर माँ ने कहा था      -"कान्तम्मा, आजकल की लड़कियाँ किसी भी तरह से लड़कों से पीछे नहीं हैं। दोनों में अब कोई खास अंतर भी नहीं रह गया है। लड़कियाँ शादी हो कर ससुराल चली जाती हैं तो लड़के भी नौकरी या व्यवसाय के चक्कर में फँस कर साथ कहाँ रह पाते हैं  ? मेरे अन्ना-वदीने (भाई-भाभी) बुढ़ापे में अकेले रह रहे हैं, उनका लड़का विदेश में काम करता है। वह भारत आने को तैयार नहीं है और ये विदेश जाकर नहीं रहना चाहते। आपके घर में भगवान की कृपा से एक पोती है, दूसरी संतान भी आने वाली है, हो सकता है कि वह पोता ही हो।..मेरे बेटे की शादी को दस वर्ष हो गए. कोई संतान नहीं है। हम तो बस एक संतान के लिए तरस रहे हैं, भले ही वह बेटी हो। स्वाति के यदि बेटी हुई तो उसे आप हमें दे देना।'
     "शान्तम्मा, आप हमारी समस्या समझ नहीं रही हैं। बात बेटी को रखने या पालने की नहीं है,...हम भी एक क्या दो बेटी पाल सकते हैं किंतु आपकी बेटी संतान के लिए तीसरा चांस नहीं ले सकती, उसकी जान को खतरा हो सकता है। अत: बेटे की चाह को पूरा करने के लिए ही मैं परीक्षण कराना चाहती हूँ, उसके बाद जरूरत पड़ी तो गर्भपात भी।'
          माँ को चुप देख कर अत्तम्मा ने चिढ़ कर पुन: कहा- "शादी सगों में ही हो तो ठीक रहती है। मैं तो वेंकट की शादी अपने अन्ना की बच्ची से करना चाहती थी, इसी बीच उगादी के दिन किसी मित्र के यहाँ स्वाति को देखकर वह स्वाति को चाहने लगा और उसी से शादी करने की जिद्द कर बैठा। मेरे अन्ना तो इस बात को लेकर आज भी मुझसे नाराज हैं।उनकी बेटी बहुत सुंदर थी और पढ़ी-लिखी भी थी। अब तो वह दो बेटों की माँ हैं। रिश्तों में शादी हो तो एक-दूसरे पर दबाव बना रहता है, वे एक-दूसरे की समस्या समझने व सुलझाने की कोशिश करते है।आप उसे समझाने के बदले मुझे ही शिक्षा दे रही हैं कि बेटे-बेटी में कोई अंतर नहीं रहा।'
      "कान्तम्मा, आपके आने से पहले मैं उसे बहुत समझा चुकी हूँ लेकिन वह उस सबके लिए तैयार नहीं है तो मैं क्या कर सकती हूँ ? यह बच्चों का व्यक्तिगत मामला है, मैं उसमें टाँग अड़ाना पसंद नहीं करती। मैं तो अपने बेटे-बहू के व्यक्तिगत मामलों में भी दखल नहीं देती। मैं समझती हूँ अब मुझे चलना चाहिए।'

        आज ठहर जाने के मेरे आग्रह को ठुकरा कर माँ तभी लौट गई थीं। मेरे लिए भी अब यह तनाव झेलना मुश्किल होता जा रहा था। मैंने वेंकट से स्पष्ट बात कर लेना उचित समझा 
 --"वेंकट तुम्हारा निर्णय भी वही है, जो अत्तम्मा का है  ? क्या तुम्हें भी बेटा ही चाहिए ? मुझे यह परीक्षण कराना ही पड़ेगा ?'
     "मैंने इस विषय पर विस्तार से नहीं सोचा है, मैं तो बस इतना जानता हूँ कि एक अजन्मे शिशु के मोह में फँस कर तुम जीती-जागती माँ को कष्ट पहुँचा रही हो। तुम्हारे बेटा हो, इसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं है, वह तो हमारे भविष्य की चिंता करके ही यह चाहती हैं।'
 "हमारे भविष्य की चिंता करके वह हमारा वर्तमान क्यों बिगाड़ रही हैं ? हमारी व्यक्तिगत जिंदगी, व्यक्तिगत फैसलों में क्यों दखल दे रही हैं ? उनकी सेवा करने को तो बेटे के रूप में तुम हो ही, इसी से संतुष्ट क्यों नहीं हो जातीं ?'
 "असली बात तो यह है स्वाति कि मैं भी बेटा चाहता हूँ। आज के इस जटिल समय में बेटियों को पढ़ा-लिखा कर समर्थ बनाना, फिर उनके लिए ढेर सारा दहेज जुटाना मुझ जैसे सर्विस क्लास के लिए मामूली बात नहीं है।'
 "वेंकट मैं भी पढ़ी-लिखी हूँ, बच्चों के कुछ बड़े हो जाने पर मैं भी कुछ काम करूँगी। हम दोनों मिल कर अपनी इन जिम्मेदारियों को पूरा करेंगे...तुम परेशान मत हो।'
 "बड़ा घमंड है अपनी पढ़ाई का ? पढ़े-लिखे सैकड़ों लोग दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं पर नौकरी नहीं मिलती।..रोज-रोज के इस तनाव से मैं परेशान हो गया हूं, मेरा पीछा छोड़ो, चाहो तो कुछ दिन अपनी माँ के पास रह आओ।'
 "मुझसे इतना तंग हो गए हो,...हमेशा के लिए पीछा छुड़ाने का इरादा तो नहीं ?'
 "मैं कुछ नहीं जानता, तुम्हें जो मतलब निकालना है, निकालो।'
   माँ के घर जाने की बात सुन कर अत्तम्मा ने कहा था- "कितने दिन रह पाओगी वहाँ ? तुम्हारा अंतिम फैसला है कि तुम परीक्षण नहीं कराओगी ?"
 "अत्तम्मा बेटे की चाह मुझे भी है लेकिन इतनी नहीं कि उसकी चाह में बेटी की बलि दे दूँ। मुझे माफ करना, मैं यह फैसला बदल नहीं पाऊँगी।.. आप जब चाहेंगी मैं अपने घर में वापस लौट आऊँगी।'
 मुझे देखते ही अन्ना-वदीने (भैया-भाभी) खुश हो गए। नन्हीं को गोद में उठा कर ऊपर उछालते हुए बोले- "अब तो हमारे घर में खूब रौनक हो जाएगी...इसके साथ खूब खेलेंगे।'
   माँ से पूरी बात सुन कर अन्ना बोले थे-"स्वाति तू परेशान मत हो, हम सब तुम्हारे साथ हैं, सब ठीक हो जाएगा। बेटा हो तो तुम रख लेना, बेटी हो तो वेंकट से सलाह करके हमें दे देना। हमारे घर में भी बहार आ जाएगी।'
     मेरे आने के एक सप्ताह बाद तक वेंकट या अत्तम्मा का कोई फोन नहीं आया। मैं दुखी तो थी, मन हो रहा था मैं भी फोन न करूँ किंतु अपने-अपने अहम् में फँस कर ही परिवार टूट जाते हैं। मैंने ही वेंकट को फोन कर लिया। फोन पर वह उखड़े मूड में ही मिले। नन्हीं का हालचाल भी नहीं पूछा। शुरू में तो अपने पापा व दादी को याद करके नन्हीं बहुत रोती थीं फिर उसकी दोस्ती अपनी अमम्मा (नानी) व मामा-मामी से हो गई, अब वह खुश रहती है।
 आज उगादी है। इसी दिन वेंकट से मेरी मुलाकात अपनी मित्र के यहाँ हुई थी। मुझे वेंकट की बहुत याद आ रही थी, क्या उनको भी मेरी याद आई होगी ? याद आती तो वे एक फोन तो कर ही सकते थे। उनका फोन नहीं आया तो न सही, मैं ही कर लेती हूँ। मैं वेंकट को फोन करने के लिए उठी ही थी कि तभी फोन की घंटी घनघना उठी। फोन मैंने ही उठाया था -  "कौन स्वाति ?...हैप्पी उगादी स्वाति, कैसी हो, नन्हीं कैसी है ?..अच्छा लो पहले माँ तुमसे बात करना चाहती हैं।"
 "स्वाति अपने घर लौट आ, नन्हीं और तुम्हारे बिना यह घर अच्छा नहीं लगता। वेंकट भी न ढ़ंग से खाता है न पीता है, हर दम उदास रहता है। बहुत दुबला हो गया है। अक्सर घर से बाहर ही रहता है। कहीं पोते की जिद्द में मैं अपना बेटा ही न खो दूँ...भगवान ने मुझे तो बेटा दिया है। अपनी संतान के लिए फैसला करने का हक सिर्फ तुम्हें है,...तुम्हारा निर्णय ही अंतिम होगा।...बस अब तुम लौट  आओ। लो वेंकट से बात करो।'
   "स्वाति, मैं तुम्हें लेने अभी आ रहा हूँ । पुरानी बातों को भूल कर उगादी के इस नववर्ष में हम पुन: नई आशा और नए विश्वास के साथ जीवन जिएँगे और एक साथ मिल कर उस नए पुष्प का इंतजार करेंगे, जो हमारे घर आने वाला है।'
 खुशी से मेरे नयन भर आए थे और वाणी अवरुद्ध थी। मैं इतना ही कह पाई- "आ जाओ, मुझे तुम्हारा इंतजार रहेगा।'
 भाभी के हाथ से रंगोली के रंग लेते हुए मैंने कहा- "आप पूरनपोली और पच्चड़ी बना लो, दरवाजे पर रंगोली मैं बना देती हूँ।'
    "स्वाति आप को खुश देख कर हम बहुत खुश हैं।  रंगोली के रंग तो आपके चेहरे पर बिखरे हैं।...भगवान करे आप सदा ऐसे ही हँसती रहें ।'

                                           -------
                                 (मेरे दूसरे कहानी संग्रह "उजाले दूर नहीं " में से ) 


  ईमेल --  agarwalpavitra78@gmail.com

-पवित्रा अग्रवाल
 

शुक्रवार, 3 जून 2016

कहानी    
               
                          रिश्ता मैत्री का

                                                             पवित्रा अग्रवाल
                 
     दरवाजा खोलते ही उसकी नजर लिफाफे पर पड़ी. लिफाफा उठाया तो स्तब्ध रह गई. बरसों बाद भी लिखावट पहचानने में उसे एक पल भी नहीं लगा. शेलेश की लिखावट तो वह हजारों में भी पहचान लेगी ..उसने झटपट लिफाफा खोला –
‘प्रिय नीरजा
आशा है तुम स्वस्थ ,प्रसन्न होगी .शारीरिक मानसिक यातनाएं पाने के लिए तो मैं ही बहुत हूँ और सच मानो तो इस का हकदार भी हूँ .यह सब मुझे मिलाना ही चाहिए था .
तुम्हारी भेजी गई दीपावली और नव वर्ष की शुभकामनाएं मुझे हर वर्ष नियमित रूप से  मिलती रहीं पर शुभकामनाएं भेजना तो दूर ,मैं तुम्हें कभी धन्यवाद की एक लाईन भी नहीं लिख सका ,किस मुंह से लिखता ?
    इधर पिछले कुछ वर्षों से इच्छा होती रही की तुम्हें लौटा लाऊँ किन्तु साहस नहीं जूटा सका .अब किसी काम में न तो मन लगता है और न शरीर समर्थ है.एक महीने से बिस्तर से भी नहीं उठ सका हूँ ,जीवन में अँधेरा ही अँधेरा है .कहीं रोशनी की  कोई किरण नजर नहीं आती .
     कमजोरी इतनी है कि यह पत्र भी तुम्हें मुश्किल से लिख पा रहा हूँ....बहुत भोगा  है मैं ने.अब तो शायद मौत भी निकट है ...मरने का मुझे कोई गम नहीं ,मैं जीना भी नहीं चाहता .सोते जागते हर पल ,हर क्षण बस तुम याद आती हो .अपराध बोध से मन बोझिल है ... मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिए हैं .सप्तपदी के समय जीवन भर साथ निभाने की शपथ खाकर भी तुम्हें धोखा दिया .इस ख्याल ने मुझे चैन से जीने नहीं दिया और अब मरने भी नहीं देता ....
क्या तुम एक बार आ सकोगी ?तुम्हें बिना देखे एक लम्बा अर्सा बीत गया .एक बार तुम्हें देखना चाहता हूँ ,तुम तो मेरा पहला प्यार थीं .तुम्हें किन रिश्तों ,किन संबधों की सौगंध दिलाऊँ ? तुम मैत्री के रिश्ते को स्थाई मानती थीं न ? बस तुम्हें उसी मैत्री की सौगंध है ,तुम जरुर आना ....मुझे तुम्हारा इंतजार रहेगा .
       

                                                          तुम्हारा शैलेश 

     पत्र पढ़ कर मन दुखी हो जाता है ,चाह कर भी उसे कोस नहीं पाती .न उसकी इस हालत पर ख़ुशी अनुभव कर पाती हूँ .भले ही उसने मुझे ठुकराया ,अकेलेपन के इस रेगिस्तान में झुलसने को छोड़ दिया फिर भी कहीं कोई नाजुक सा सूत्र था जो जुड़ा रह गया था .क्या था वह सूत्र ? शायद वह सूत्र था मैत्री का .स्मृतियाँ अठारह वर्ष पीछे लौट जाती हैं .  
‘ऐ शैलेश की माँ सुना तुमने,पडौस के लाला जी के नाती हुआ है ' पड़ोसन ने कहा
‘अच्छा... अभी तो ब्याह हुआ था मुश्किल से नौ –दस महीने हुए होंगे,भाग्यवान हैं वह लोग .’ – सास ने निश्वास छोड़ा था
वह माँ के इस निश्वास का कारण जानती है ‘कारण वह स्वयं ही है जो पांच साल में भी पोते पोती का मुंह नहीं दिखा सकी .वह जानती है यह बातचीत हमेशा की तरह इसी बिंदु पर आकर रुकेगी –
‘मैं तो अभागी हूँ बहन ,एक ही बेटा है उसके भी कोई औलाद नहीं .लगता है वंश यहीं समाप्त हो जाएगा .’
    ‘सुनो आज कल यहाँ एक बाबा आये हुए हैं ,तुम बहु को वहां क्यों नहीं ले जातीं ? सुना है उनके आशीर्वाद से कई निसंतानों की गोद भर गई है’
   ‘वह जाए तब तो ले जाऊं.एक बार कहा था तो टाल गई.पुनः कहा तो बोली शैलेश को ले जाइए...एसी औरत किस काम की जो वंश ही मिटा दे .’
    यह चर्चा सुन कर उसके अंदर ज्वालामुखी सुलगाने लगते हैं .वह क्या करे सब कुछ अपने हाथ में तो नहीं होता.बच्चे की चाह क्या उसे नहीं है .अपना दुःख वह किस से कहे ,मन ही मन घुटती है.इन्ही मानसिक तनावों से बचने और स्वयं को व्यस्त रखने के लिए उसने नौकरी नहीं छोड़ी .शादी के बाद शेलेश और उसकी माँ ने कहा था घर में पैसे की कोई कमी नहीं है तुम चाहो तो नौकरी छोड़ सकती हो’ नौकरी का उसे भी कोई शौक नहीं है .उसने पहले ही सोच रखा था कि घर में संतान आने के बाद वह नौकरी छोड़ देगी.
    ‘तुम शैलेश का दूसरा विवाह क्यों नहीं कर देतीं ?’पड़ोसन ने सुझाव दिया
‘कैसे कर दूं दूसरा ब्याह ...कानून इसकी इजाजत नहीं देता .पहले का जमाना अच्छा था .अब तो दूसरा ब्याह तभी हो सकता है जब पहले वाली पत्नी मर जाये या तलाक हो जाए .’
   ‘अरे शैलेश की माँ, तुम भी क्या बातें  करती हो...अब भी सब कुछ होता है .मेरे भाई ने कुछ साल पहले दूसरा ब्याह किया था ,ठाट से रह रहा है .’
     ‘यही तो मैं कहती हूँ पर शैलेश माने तब न .पहले कहती थी तो बिगड़ पड़ता था लेकिन अब चुप हो जाता है फिर भी उससे बार बार कहने की हिम्मत नहीं पड़ती .फिर  मैं पत्नी को छोड़ देने को तो नहीं कहती ...’
   नीरजा सहम जाती है .क्या अब शैलेश दूसरे ब्याह की बात का विरोध नहीं करते ,चुप हो जाते हैं ....कहीं मन ही मन दूसरे विवाह की तैय्यारी तो नहीं कर रहे ?बिछोह की कल्पना करके वह विचलित हो उठती है ...नहीं शैलेश एसा नहीं कर सकते .क्या वह वर्षों के प्यार ,आत्मीय संबन्धों को एक संतान के अभाव में तोड़ देंगे ?नहीं एसा वह कैसे कर सकते हैं ?
   वैसे उसने भी महसूस किया है की इधर शैलेश उदास रहने लगे हैं .उनका उत्साह ,उल्लास मानो चुक सा गया है .रात को थक हार कर घर लौटना ,कभी खाना खालेना कभी कहना दोस्त के यहाँ खा कर आया हूँ फिर यह भी नहीं पूछना कि तुम ने नहीं खाया होगा ,तुम खालो .
    उस दिन करवा चौथ थी,उसने भी व्रत रखा था.इन व्रत उपवासों में उसकी कभी भी आस्था नहीं रही फिर भी जो जो व्रत उपवास शैलेश की माँ कहती थीं वह रख लेती थी.क्यों कि वह उन्हें दुखी नहीं करना चाहती थी .वैसे भी उसने जिसे दिल से चाहा है,रीति रिवाज के नाम पर ही सही ,उसके लिए एक दिन उपवास रखने में उसे कोई परेशानी नहीं होती थी .यों  कभी कभी उपवास धार्मिक दृष्टि से न सही स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उपयोगी होता है.
चाँद कब का निकल चुका था .वह भूखी इंतजार करती रही कि हमेशा की तरह  शैलेश के आने पर साथ खाना खाएगी .रात को लगभग एक बजे वह लौटा था .
   ‘आने मैं बहुत देर करदी ...खाना ला रही हूँ .’
‘नहीं मैं खाना खाकर आया हूँ ’कहते हुए कपडे बदले और पलंग पर जाकर लेट गया .वह भी बिना खाए पिए बिजली बुझा कर लेट गई थी .
वह कल्पना कर रही थी की शैलेश अभी उठ कर पास आ बैठेंगे और कहेंगे – ‘नीरजा तुमने खाना नहीं खाया होगा ?स्वयं को कष्ट देकर मुझे यों न सताओ,उठ कर खाना खा लो . उसे याद है जब विवाह के बाद पहली बार उसने करवा चौथ का व्रत रखा था तो वह बिगड़ने लगे थे – नीरजा यह क्या पागलपन है .वैसे ही हैल्थ बहुत अच्छी है न ,...क्या जरुरत है व्रत रखने की ?’
   ‘तुम भी खूब हो साल में एक दिन, एक समय न खाने से क्या फर्क पड़ता है ?’
   ‘ठीक है तो फिर मैं भी व्रत रखूंगा .’
वह खिलखिला कर हंसी थी ‘यह व्रत तो पत्नियाँ रखती हैं .अगले जनम में तुम पत्नी बनना,तब यह व्रत रखना’
‘ मैं तो व्रत रखूंगा,तुम मेरे लिए और मैं तुम्हारे लिए ’
माँ ने सुना तो बहुत हंसी थीं .
अब शैलेश इतना क्यों बदल गए हैं ,वह सोचती रही और आखों से आंसू बहते रहे.
     रात को देर से घर लौटना शैलेश की आदत बनती जारही थी .रात के ग्यारह बज गए शैलेश अभी तक नहीं लौटे थे.उनके बदलते रंग ढंग और व्यवहार से वह हरदम आहत होती और सोचती रहती कि शैलेश को यह क्या होता जा रहा .क्या यह वही शैलेश हैं जो दसवीं से एम.एससी तक साथ साथ पढ़े थे. शादी से पहले अच्छे मित्र रहे और उसी मित्रता को जिन्दगी भर हर स्थिति में साथ निभाने के लिए शादी की और यह भी तय किया था कि पति पत्नी की तकरार का प्रभाव अपने मैत्री सबंधों पर कभी नहीं पड़ने देंगे .
   जूतों की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ ,उसके विचारों का ताँता टूट गया,शैलेश आगये थे .दोनों चुप रहे ,कोई किसी से कुछ नहीं बोला .शैलेश ने कपड़े बदले और लाइट बुझा कर बिस्तर पर लेट गया . वह भी करवटें बदलती रही .उनके संबंधों में एक ठहराव सा आगया था.दूरी दिन पर  दिन बढती जारही थी.जिसमें उसका  दम घुटने लगा था .उठ कर उसने खिड़की का पर्दा हटा दिया ,चांदनी कमरे में बिखर गई थी .
     शैलेश को आँखों पर हाथ रखे ,उदास लेटे देख कर उसका मन भर आया .पास होकर भी दोनों कितनी दूर हैं ,साथ होकर भी अकेले ,आखिर क्यों ?वह उसके सिरहाने जाकर बैठ गई .असहय मौन को तोड़ने के लिए उसने सहज स्वर मैं कहा –‘सो गए ‘
‘नहीं तो .’
‘आज फिल्म देखने गए थे क्या ?’
‘नहीं कोहिली अपने घर ले गया था...उसका बेबी बड़ा स्वीट है .मुझे टॉफी वाले अंकल कहता है .उसकी मीठी मीठी बातें मुझे वहां खीच चले जाती हैं.’
   शायद उसने बच्चे का जिक्र सहज मन से ही किया होगा पर नीरजा को कहीं चोट लगी .लगा जैसे जानबूझ कर सुनाया जा रहा है .फिर भी वह सहज होंने की चेष्टा करती है – ‘शैलेश तुम लौटने में बहुत देर कर देते हो ...तुम्हारे बिना मैं भी बहुत अकेलापन महसूस करती हूँ .’
   ‘जल्दी लौट कर भी क्या करूँ? यहाँ  मेरा दम घुटता है ....घर में कितना सूनापन रहता है....सुनो माँ ने तुम से कहीं चलने  के लिए कहा था ...गई क्यों नहीं ?’
     अक्सर माँ की कटु बातें उसे निसंतान होने के कारण सुननी पड़ती हैं .कितनी ही बार उसके मन में आया है की शैलेश से कहे ताकि मन का बोझ कुछ कम हो जाये किन्तु इस बारे में कुछ भी कहना उसे स्वयं को  नंगा कर ने जैसा लगता रहा है.बस इसी लिए वह चाह कर भी कुछ नहीं कह पाती .
      ‘माँ तो रोज ही कहीं न कहीं चलने को कहती रहती हैं.कालेज पढ़ाने जाऊं ,घर का काम करूँ या फिर सयाने दीवानों के पास चक्कर लगाती फिरूं ? वैसे यह सब न मुझे पसंद है और न मेरा इस में विश्वास है .’
   ‘लेकिन तुम्हें जाना चाहिए था .कुछ नहीं तो माँ का मन ही रह जाता....एक पोते या एक पोती के लिए वह कितना तड़प रही हैं .उनका कोई दूसरा बेटा भी तो नहीं है,जहाँ अपनी इच्छा पूरी करने का इंतजार कर लेतीं .’
     मन हुआ कहे उनकी इच्छा पूरी करने के लिए मंदिर- मजारों ,सयाने- दीवानों के तुम खुद क्यों नहीं चले जाते ...वैसे भी शादी को पांच साल ही हुए हैं...लोगों के तो शादी के दस बारह साल बाद भी बच्चे हुए हैं .मेडिकल चैकअप में हम दोनों में ही कोई खराबी नहीं आई है . ज्यादा ही जल्दी है तो एक बच्चा गोद लिया जा सकता है .
     लेकिन वह कुछ नहीं कह पाती .यह सब समझने की बुद्धि तो शैलेश में भी है.कुछ कहने से बात बढ़ेगी ही और वह किसी तकरार में नहीं पड़ना चाहती .दोनों के बीच खाई दिन पर दिन चौड़ी होती गई .शैलेश हरदम चिड़ाचिडाये रहते,बात बात पर खीज उठते,सामान्य शिष्टाचार भूल कर दूसरों के सामने भी बुरा भला कह कर अपमान कर बैठते .एक दिन एसे ही किसी प्रसंग से आहत हो कर वह बोली थी –‘शैलेश मैं देख रही हूँ की तुम मुझे इस घर में और बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हो ,मेरे मुंह से कोई बात निकलते ही काट खाने को दौड़ते हो.एसा कब तक चलेगा ?...रोज रोज की झिक झिक से अच्छा है हम अब अलग हो जाएँ ...तुम भी तो यही चाहते हो न ?’
    ‘हाँ होजाओ अलग ,छोड़ दो मेरा पीछा...मुझे तुम से छुटकारा चाहिए ,देदो तलाक .
 ‘तलाक ...! तलाक नहीं दे सकती '
‘किन्तु मुझे तलाक चाहिए और ले भी लूँगा .’
‘किस आधार पर ?’
‘आधार तो समय आने पे ढूँढ लिए जायेंगे ‘
    वह अन्दर तक कांप उठी थी .निसंतान होना तलाक के लिए कोई वाजिव कारण  नहीं है,इस आधार पर उसे तलाक नहीं मिल सकता .तलाक के लिए झूठे,गलत, गंदे किस्से गढ़े जायेंगे...वह सब कुछ सह सकती है किन्तु चरित्र पर आक्षेप नहीं लेकिन बिना इस के वह तलाक ले नहीं पायेगा .
‘शैलेश मैं बहुत मानसिक यातनाएं भोग चुकी हूँ ,अब और कष्ट मत पहुँचाओ .कानूनन तलाक की कोई जरुरत नहीं है .मैं खुद तुम से बहुत दूर चली जाऊंगी .तुम निसंकोच अपनी नई गृहस्थी बसालो.’
‘कभी तुम ने कोई दावा किया तो मैं तो मुसीबत में पड़ जाऊँगा .’
     ‘ अब हमारे बीच बचा ही क्या है जिस के लिए मैं कोई दावा करूंगी .अच्छा है मेरी नौकरी अभी सही सलामत है .अतः अपने लिए मेरे पास धन दौलत की कभी कमी नहीं रहेगी .अपनी पत्नी पर न सही ,अपनी व उसकी मैत्री पर भी विश्वास नहीं रहा ? कहो तो स्टेम्प पेपर पर लिख कर दे दूँ ?’
    यह सब कहते हुए उसमें इतनी स्थिरता व साहस न जाने कहाँ से आगया था कि प्रकट में न वह तनिक भी विचलित हुई और न आवाज में कोई लड़खड़ाहट ही आई .
    मित्रता शब्द सुनते ही शैलेश के चहरे पर एकाएक परिवर्तन आगया .वह एक शब्द भी बिना बोले घर से बाहर निकल गया .
और कुछ  दिनों में ही वह अपना तबादला करा कर उस घर से ही नहीं, उस शहर से भी बहुत बहुत दूर चली गई .
     बाद में उसने सुना था शैलेश ने दूसरी शादी करली है .फिर सुना प्रथम प्रसव में पुत्र को जन्म देकर पत्नी चल बसी .कुछ दिनों पहले ही किसी ने बताया था की शैलेश का पंद्रह – सोलह वर्ष का बेटा बुरी संगत में पड़ कर ,घर छोड़ कर कही चला गया है .
     फोन की घंटी से उसका ध्यान भंग हुआ .शाम के सात बज गए थे ,वह अभी तक अतीत में विचरण करती रही थी .पत्र अभी भी उसके हाथ में था.तीन घंटे का समय अभी भी उसके हाथ में है ...उसे एक बार  जाना ही होगा .
      उसने फोन का रिसीवर उठाया .उसके साथ काम करने वाली उसकी प्रिय सखी सुजाता थी .उसने सुजाता को पूरी बात बता कर  आज ही रात को शैलेश के पास जाने की सूचना दी.
     सुजाता ने कहा ‘तलाक तो तुम्हारे बीच हुआ नहीं है, क्या पत्नी के नाते जाना चाहती हो ?’
‘वह रिश्ता तो कब का मर चुका है .शैलेश बहुत बीमार है ,दोस्त के नाते एक बार उसे देखने जाना चाहती हूँ '

    
        शैलेश के घर के सामने वह ऑटो से उतरी.उसे ऑटो का किराया देकर  दरवाजे पर आई.दरवाजा आधा खुला था फिर भी एकाएक घर में घुसते उसे संकोच हुआ.कॉल बैल बजने पर अन्दर से आवाज आई ‘दरवाजा खुला है‘अन्दर आजाओ .’ 
    घुसते ही उसकी नजर माँ पर पड़ी .उनके सब बाल सफ़ेद हो गए थे ,दुबली भी हो गई थीं .उसे पहचानते ही माँ नजरें नीची किये उठ कर दूसरे कमरे में चली गई .आखों पर हाथ रखे शैलेश लेटे थे .उनका रंग पीला पड़ गया था .कई दिनों से शेव भी नहीं बनी थी .माथे पर हाथ रख कर उसने पुकारा –‘शैलेश .’
 शैलेश ने चौंक कर उसे देखा .पहचानते ही उसके चहरे पर मुस्कराहट आगई ‘नीरजा तुम आगई -? कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा ?’
      ‘सपना नहीं है, मैं सचमुच आई हूँ ‘
     शैलेश के कमजोर पड़े पीले हाथों ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और माँ को पुकारा ‘देखो माँ नीरजा आगई ‘मैं कहता था न जरुर आएगी ‘...माँ तो बहुत वर्षो से पीछे पड़ी थीं कि तुम्हें वापस ले आऊँ लेकिन मुझ में ही साहस नहीं था .अब तुम्हें नहीं जाने दूंगा’ ...उसने नीरजा का हाथ अपनी आँखों पर रख लिया था .उसके अश्रु बह कर नीरजा के हाथों को भिगो रहे थे किन्तु वह शांत थी ,निशब्द .
    चार –पांच दिन तक नीरजा उसकी देख भाल करती रही.माँ की आँखों में भी पश्चाताप के आंसू थे -'बेटी मैं तेरी गुनाहगार हूँ .शैलेश भी मन ही मन मुझे ही दोषी समझता है .वह तुझे कभी नहीं भूल पाया ....अब उसे तू सम्हाल .’
        नीरजा चुपचाप सुनती रही ,कहा कुछ नहीं .शैलेश को देखने उसके परिचित ,मित्र,पडौसी आते ही रहते थे .जो असल में शैलेश के बहाने उसे देखने आरहे थे.
     उनकी फुसफुसाहट भी उसके कानों में पड़ती थीं –‘कैसी लक्ष्मी सी बहु है ...बीमारी की बात सुनते ही दौड़ी चली आई .अपनी जिंदगी तो बेचारी ने यों ही तपा दी...चाहती तो दूसरी शादी भी कर सकती थी .देखो तो देख भाल में रात दिन एक कर दिए हैं...पत्नी को छोड़ा भी तो संतान के लिए...बेटे ने क्या निहाल कर दिया ?'
     कभी कभी कानाफूसी में उस पर भी आक्षेप होते – ‘हे भगवान ये कैसी औरत है ..न मांग में सिन्दूर ,न पैरों में बिछिये .पति ने छोड़ दिया था तो क्या हुआ ,जिन्दा तो है .... सुना है दोनों का विधिवत तलाक भी नहीं हुआ है ,जमीन - जायदाद पर अभी भी उसका ही हक़ है .इस घर में पत्नी के नाते उसके सारे अधिकार सुरक्षित हैं ...अपना हक़ नहीं छोड़ना चाहिए '
    यह सब चर्चाये सुन सुन कर उसका सर दुखने लगता है .वापस जाने का मन भी होता है .शैलेश के पास आराम कुर्सी पर बैठे बैठे उसे झपकी लग गई थी .माँजी के करुण क्रंदन से हडबडा कर उसने आँखें खोल दीं.माँ जी शैलेश की छाती पर सिर रखे  करुण विलाप कर रही थीं,पास में दूध का गिलास लुढ़का पड़ा था . नीरजा स्वयं भी चेतना शून्य सी हो गई थी ,चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही थी .मौत को इतने निकट से उसने पहली बार देखा था .
     पड़ोसियों ने आकर माँ को शैलेश से अलग किया और शव को आँगन में रख दिया .वह निश्चेष्ट सी न जाने कितनी देर बैठी रही .तभी एक बूढी औरत उसके पास आई और बोली बहु जो होना था होगया ,ऐसे कब तक बैठी रहेगी .बाहर चल.’
     शव के पास उसे बैठा कर चूड़ियाँ तोड़ने की कोशिश करते देख वह झटके से उठ कर खड़ी होगई – ‘आप ये क्या कर रही हैं ? ...मैं उनकी  पत्नी नहीं मित्र हूँ.उनकी पत्नी तो मर चुकी है .’ सब लोग कौतुहल से उसे देखने लगे थे .
      अर्थी को बाहर लेजाते देख कर उसका मन होता है लोगों को एक बार रोक कर शैलेश को अंतिम बार देखले .निशब्द रूदन फूट पड़ता है लेकिन वह किसी से कुछ नहीं कहती .
    दाह संस्कार करके सब लोग लौट आये हैं .पडौसी ,परिचित ,शैलेश के मित्र सभी लौटने लगे हैं .वह भी अटैची लेकर बाहर आँगन में आजाती है ,सोचती है माँ शायद कुछ कहेंगी पर माँ कुछ नहीं कहतीं बस जोर जोर से रोने लगती हैं . वह माँ के पास जाकर उनके कंधे पर हाथ रख कर खड़ी हो जाती है -       'माँ अब मैं जारही हूँ .मेरे लायक कभी भी कोई काम हो तो आप मुझे जरुर याद करें’ कह कर वह शैलेश के दूसरे मित्रों की तरह घर से बाहर निकल आती है . 

                                      
  पवित्रा अग्रवाल
     
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agarwalpavitra78@gmail.com

शुक्रवार, 13 मई 2016

आखिर क्यों

    कहानी              आखिर क्यों   
                                                                        
                                                                         पवित्रा अग्रवाल                            
               
       कॉलेज से लौटी तो घर का वातावरण कुछ असहज सा लगा। रोज किवाड़ चाची खोलती थीं, आज माँ ने खोले थे और चाची का कहीं अता-पता नहीं था।इस समय रोज चाची मेरा इंतजार करती मिलती थीं। फिर हम दोनों मिल कर साथ खाना खाते थे।चाचा की शादी के बाद से घर मुझे बहुत प्यारा लगने लगा था।पहले मुझे घर में कंपनी देने वाला कोई नहीं था।न कोई भाई-बहन,न बुआ।दादी के पास बैठने का मतलब था सिर्फ उपदेश "जीन्स नहीं पहनो,सलवार सूट पहनो।घर का काम काज सीखो,'  ...यों चाची मेरी हम उम्र नहीं है ,मुझ से चार-पाँच वर्ष बड़ी हैं किंतु उम्र का ये अन्तराल कुछ भी मानी नहीं रखता, वह मुझे कभी बहन, कभी भाभी और कभी सहेली सी लगती हैं।हम दोनों में खूब अच्छी पटती रही है।
     जब से चाचा की मौत हुई है वह पत्थर बन गई है। हर समय अपनी किस्मत को कोसती रहती है।बड़ी मुश्किल से उन्हें सम्हाला है लेकिन घर में कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है कि वह अधिक दिन तक सामान्य नहीं रह पातीं ..यह कहना अधिक सही होगा कि दादी उन्हें सहज नहीं रहने देतीं।वह चाचा की मौत के लिए चाची को ही जिम्मेदार ठहराती  हैं।उनके हिसाब से चाची के पाँव इस घर के लिए शुभ नहीं हैं,वह मनहूस हैं।
     पापा और छोटे चाचा दादी को उनके इस व्यवहार के लिए कई बार समझा चुके हैं कि माँ ये शुभ- अशुभ कुछ नहीं होता।तुम्हारा बेटा बस इतनी ही उम्र लिखा कर लाया था, इस में बेचारी बहू का क्या दोष है ? तुम्हारे दुख से उसका दुख कही विशाल है।उसे सम्हालो,उसे सांत्वना दो,उसका मनोबल  बढ़ाओ माँ। उसकी जिजीविषा को कम मत करो।'
      पापा ने तो एक बार यहाँ तक कह दिया था कि राहुल तो प्रेम विवाह करना चाहता था किंतु लड़की मंगली है,यह शादी नहीं हो सकती कह कर तुमने उसका दिल तोड़ दिया था और खाना पीना छोड़ कर बैठ गई थी। लड़का अच्छा था, तुम्हारी जिद्द के सामने उसने हार मान ली थी।यह शादी तुम्हारी मर्जी से अच्छी तरह जन्म पत्री मिलवाने के बाद हुई थी,अब तुम किसी को दोष नहीं दे सकती माँ।'
      किंतु दादी कहाँ हथियार डालने वाली थीं बोलीं -"भगवान जाने जो जन्म पत्री हमें दी गई थी वह वास्तविक भी थी या नहीं..मुझे तो अब ऐसा लगने लगा है कि यहाँ भी हमें धोखा दिया गया था।'
      पापा ज्यादा बहस नहीं कर पाए।खीज कर बोले -"माँ बहस में आप से कोई नहीं जीत सकता।जो मन में आए करो।'
      मैं यह सब सुनती रही थी और मन ही मन उबलती रहती थी किंतु कुछ कहने का साहस नहीं जुटा पाती थी। चाचा को अपनी इच्छा के विरुद्ध यह शादी करनी पड़ी थी परंतु उनका उत्साह कहीं खो गया था शायद इसी लिए वह कहीं हनीमून पर भी नहीं गए थे।चाची से उनका व्यवहार कैसा था यह मैं नहीं जानती।
      चाचा बैंक में थे।उनकी मौत के बाद बैंक में जब चाची को नौकरी देने की बात उठी तो दादी ने कहा "बैंक में बात करके देखो कि यह नौकरी मृतक की पत्नी की जगह उसके भाई को दी जा सकती है क्या ? बसंत कब से नौकरी के लिए कोशिश कर रहा है किंतु सफलता नहीं मिल रही।'
      इतने दिनों से खामोश चाची ने पहली बार मुह खोला था "नहीं मम्मी जी यह नौकरी तो मैं ही करूँगी,यही मेरे जीने का सहारा होगी।'
     घर के अन्य सब सदस्यों ने भी चाची की हाँ में हाँ मिलाई थी।तब से दादी चाची से और अधिक नाराज रहने लगी थी।
      आज भी जरूर कुछ हुआ है।मुझे घर में आए इतनी देर हो चुकी है परंतु अभी तक चाची का कहीं पता नहीं है ...जरूर वह अपने कमरे में बैठ कर रो रही होगी।मेरा अनुमान सही निकला।वह अपने कमरे में थीं। उनकी आँखें रोते -रोते सूज गई थीं।
                मुझे देखते ही वह मुझ से लिपट कर रोने लगीं -"दीपा में क्या करूँ ...कहाँ जाऊँ ? अब जिया नहीं जाता। माँ-बाप हैं नहीं ,भाई-भाभी मेरी शादी कर के विदेश चले गए थे और मेरी इस दुख की घड़ी में भी नहीं आ पाए। जरूर उनकी कुछ मजबूरी रही होगी।इसका मतलब यह तो नहीं कि वह मुझ से प्यार नहीं करते।वैसे वह आ कर भी क्या कर लेते ?...अपने दुख तो मुझे खुद ही सहन कर ने होंगे।...बैक की यह नौकरी भी मैं इसी लिए करना चाहती हूँ ताकि व्यस्त रह सकूँ और किसी पर बोझ न बनूँ ।में घर में कुछ दिन और रही तो लगता है पागल हो जाऊँगी या कुछ कर बैठूँगी लेकिन मम्मी जी तो मुझे रुलाने का कोई न कोई बहाना ढूँढ़ती रहती हैं...अब ज्यादा परेशान करेंगी तो मैं यह घर छोड़ दूँगी।'
     मुझे दादी पर बहुत गुस्सा आ रहा था।आखिर वह अपने को समझती क्या हैं..ठीक है यह मकान उन्हीं के नाम है, दादा जी बहुत पैसा छोड़ गए है इसलिये वह किसी पर आश्रित नहीं है।इसका मतलब यह तो नहीं कि वह किसी को कुछ समझें ही नहीं।पता नहीं घर के अन्य सदस्य उनसे सम्मान वश कुछ नहीं कह पाते या उनकी दौलत कही उन्हें विरोध का स्वर ऊँचा करने से रोकती रही है ।किंतु मुझ पर उनका रौब कुछ ज्यादा नहीं चल पाता।उनसे बचने का में ने एक ही तरीका अपना रखा है कि में उनके पास बैठती ही नहीं।पर आज मेरा मन उन से झगड़ने को कर रहा था। में उठने को हुई पर मेरे हाव-भाव देख कर चाची ने मुझे रोक लिया "दीपा आप मेरी तरफ लेकर मम्मी जी से कुछ नहीं कहेगी ,आप को मेरी कसम है।'
      दूसरे दिन सुबह मैं कॉलेज जाने के लिए निकल ही रही थी कि दादी सामने आ गयी। वह पूजा करके मंदिर से लौटी थीं।मुझे देखते ही बोली - "ठहर दीपा ,पूजा पाठ में तो तुझे रुचि है नहीं ,प्रसाद तो लेती जा।'
      मैंने पूजा की थाली में से प्रसाद लेते हुए दादी से पूछा -"दादी आप भगवान में विश्वास करती हैं ?'
      "तू कैसा बेवकूफी का प्रश्न पूछ रही है दीपा ?..क्या तू रोज मुझे पूजा पाठ करते,मंदिर जाते नहीं देखती ?'
      "हाँ वो सब तो देखती हूँ फिर भी पूछ रही हूँ।सुना है जीवन - मृत्यु भगवान के हाथ में है।भगवान की बिना इच्छा के संसार में कुछ भी नहीं हो सकता ?'
      "तूने बिल्कुल ठीक सुना है बिटिया।बिना भगवान की इच्छा के तो पत्ता भी नहीं हिलता।'
      "लेकिन दादी जीवन और मृत्यु तो अब पूरी तरह भगवान के हाथ में नहीं रहे।सही समय पर डॉक्टर की मदद मिल ज़ाए तो कितने ही लोगों को नया जीवन मिल जाता है और यदि कोई अपनी ही जान लेना चाहे तो उसे कौन रोक सकता है ?'
     "नहीं बेटा यह सब मानव का भ्रम है।सच पूछो तो उसके हाथ में कुछ नहीं है, बस परिस्थिति वैसी बन जाती हैं। किस को कितना जीना है सब पहले से निश्चित होता है।'
     "दादी आप तो बहुत ज्ञानी है।मुझे बस एक बात बताइए जब जीवन मृत्यु पर मानव का वश नहीं है फिर सब चाचा की मौत के लिए चाची को दोषी क्यों मानते हैं ? जिस ट्रक ने चाचा को टक्कर मारी थी वह चाची तो चला नहीं रही थी फिर चाची को अशुभ कह कर उनका तिरस्कार क्यों किया जाता है ?'
      चाची का नाम आते ही दादी के चेहरे पर एक दम से कठोरता के भाव आ गये थे -""तो इतनी लंबी चौड़ी भूमिका तू अपनी चाची के लिए बाँध रही थी ?... बहू तेरी  यह बेटी पढ़-लिख कर अब हमको ही पढ़ाने लगी है, इसे हटाले यहाँ से।'
    "दादी  मुझे तो कॉलेज जाना है।गुस्सा छोड़ के बस एक बार अपने ही कहे पर विचार करना कि यदि हम सब अपनी उम्र ऊपर से ही लिखा कर लाते हैं तो पति की मौत के लिए पत्नी को मनहूस क्यों कहा जाता है ?---आखिर क्यों ?
                                                               
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मेरे ब्लोग्स --

शनिवार, 16 अप्रैल 2016

एक दूजे के लिए

कहानी
                    एक दूजे के लिए
                                                                      पवित्रा अग्रवाल

             एयरपोर्ट पहुँचते ही मेरी नजर उन दोनों पर पड़ी थी। उन दोनों के ही चेहरे , हाथ-पैरों आदि संपूर्ण शरीर पर सफेद दाग थे। उनकी उम्र तीस वर्ष के आसपास रही होगी। उन को देखते ही मेरे मन में विचार उठा कि आखिर इनमें रिश्ता क्या है। ये दोनों भाई-बहन हैं, पति-पत्नी हैं या मित्र हैं ? सुनने में तो यही आया है कि आमतौर पर यह बीमारी वंशानुगत नहीं होती अतः हो सकता है ये भाई-बहन न हों।  तो मित्र हो सकते है या फिर पति-पत्नी। यदि पति-पत्नी ही हैं तो निश्चय ही यह बीमारी दोनों को शादी के बाद तो नहीं हुई है। इसका मतलब दोनों ने जानते-बूझते ये शादी की होगी। उनसे बात करने को मेरा मन उत्सुक था।  जाने-अनजाने मेरी नजरें बार-बार उनकी तरफ उठ जाती थी। इस बात का अहसास उन्हें भी हो चुका था। जब हमारी नजरें आपस में टकरा जातीं तो मैं दूसरी तरफ देखने लगती थी।
          मैं सपरिवार दिल्ली से कुल्लू जा रही थी। मुझे सुखद अनुभूति तब हुई जब मैंने उन्हें भी उसी प्लेन में चढ़ते देखा। कुल्लू के भुंटर हवाई अड्डे पर हम सब उतरे तो वह दोनों हमारे पास आए।
 उन्होंने अपना परिचय दिया। वह संजय और नन्दा थे। वह भी मनाली जाना चाहते थे। मनाली जाने से पहले वह मनीकरण जाने-के इच्छुक थे। हमारा भी यही प्रोग्राम था। वह हमारे साथ टैक्सी शेयर करना चाहते थे। हमने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। मनीकरण के रास्ते में नन्दा से बात करने का अवसर मिला।
         वह दोनों पति-पत्नी थे। चार वर्ष पूर्व ही दोनों का विवाह हुआ था। अपने विवाह की चौथी वर्षगाँठ मनाने वह कुल्लू-मनाली-शिमला घूमने निकले थे। वह अपने विवाह की हर वर्षगाँठ पर इसी तरह देश के विभिन्न भागों में घूम चुके हैं। आगे भी उनकी यही योजना है। उनसे बात करते समय ज्ञात हुआ कि वह सिकंदराबाद में रहते हैं।...दोनों बाहों में बाहें डाले इतने खुश थे, जैसे विवाह की वर्षगाँठ नहीं, हनीमून मनाने आए हैं।
 मैंने नन्दा से पूछा,- "नन्दा तुम्हारा प्रेम-विवाह है या माता-पिता द्वारा तय किया गया विवाह है ?'
 "इसे आप लव मैरेज भी कह सकती हैं और अरेन्ज मैरिज भी।'
 "वह कैसे ?
 "पहले हम दोनों ही मिले थे। घर वालों की मुलाकात बाद में हमने ही कराई थी।'
 "आप दोनों कहाँ टकरा गए ? '
 "हम दोनों तो बने ही एक-दूसरे के लिए थे । अत: कहीं-न-कहीं तो हमें टकराना ही था।' चहकते हुए संजय ने पहली बार मुँह खोला था।
       नई नवेली की तरह लजाती हुई नन्दा बोली, "अपनी इस स्किन डिजीज की वजह से मैं स्किन स्पेशलिस्ट के यहाँ जाती थी। वहाँ इसी बीमारी के बहुत मरीज आते थे। वहीं हमारी मुलाकात हुई थी।...यही मुलाकात धीरे-धीरे दोस्ती में बदल गई। करीब चार वर्ष लगातार मिलते रहने के बाद हमें लगा कि शादी करके हम एक-दूसरे के साथ खुश रह सकते हैं। अपना-अपना निर्णय हमने अपने घर वालों को बता दिया।'
 "घर वालों ने कोई आपत्ति नहीं की ?'
       "अरे नहीं, वह तो खुश हो गए। उनके तो मन की मुराद ही पूरी हो गई थी। असल में मेरे माता-पिता मेरे भविष्य को लेकर बहुत परेशान रहते थे। उनका सोचना था कि माँ-बाप जीवन भर साथ नहीं दे सकते। भाई अभी तो अच्छे हैं। शादी के बाद पता नहीं उनमें क्या बदलाव आए। भाई के सहारे मुझे छोड़ कर वह खुश नहीं होते। उन्होंने शादी के लिए भी बहुत भागदौड़ की। कुछ जरूरतमंद अपनी व्यक्तिगत परेशानियों की वजह से मुझ से  शादी के लिए तैयार भी हो गए थे। एक लड़के के दो बहनें थीं। माँ-बाप नहीं थे। बहनों की शादी की उम्र निकली जा रही थी किंतु शादी के लिए उसके पास धन नहीं था। वह स्वयं भी बेरोजगार था।
किंतु पढ़ा-लिखा व सुंदर था। पापा ने उसकी बहनों की शादी का खर्च उठाने की जिम्मेदारी ले ली थी और उसे अपनी फैक्ट्री में एक अच्छी पोस्ट देने का विश्वास भी दिलाया था। अत: वह शादी के लिए तैयार हो गया था....
        पर मैंने इस शादी से साफ इन्कार कर दिया। यह शादी नहीं एक सौदा था। अपनी बहनों को अच्छा भविष्य देने के लिए उस भाई ने मुझ जैसी लड़की से शादी करने का फैसला कर लिया था। किंतु मैं जानती थी वह मुझे मन से कभी प्यार नहीं कर पाता। हो सकता है अपना काम पूरा हो जाने पर वह मुझे त्याग देता या न भी त्यागता तब भी मैं और वह दोनों खुश नहीं रह पाते। उसकी नजरों में उपजी उपेक्षा या नफरत मैं सह नहीं पाती।...वह शादी सुखद भविष्य की गारंटी नहीं थी।...इससे तो मैं बिना शादी के ही ठीक थी...मेरा ये विचार मात्र काल्पनिक भी नहीं था। क्लीनिक पर खाली समय में बहुत से मरीजों से हमारी बातचीत होती रहती थी। उन के दुख-सुख, अनुभव सुनने के बाद ही मैंने ये फैसला किया था कि यदि शादी करूँगी तो किसी अपने जैसे से। जब हम दोनों एक ही रोग से पीड़ित होंगे तो एक-दूसरे की उपेक्षा या एक-दूसरे से घ्रणा तो कर नहीं सकते...और उन्हीं दिनों संजय से मुलाकात हुई...और यह मुलाकात प्यार में बदल गई।...फिर हमारी शादी हो गई।'
      संजय बोला- "देखिए हमारी शादी को चार वर्ष हो गए किंतु हमारे बीच कभी कोई समस्या पैदा नहीं हुई।...हम बहुत खुश हैं बल्कि हमने अपने जैसे भाई-बहनों के सामने एक उदाहरण पेश किया है।...एक हल निकाला है।...जिसे वह भी अपना सकते हैं।...मैं ठीक कह रहा हूँ न नन्दा ? '
       "हाँ संजय हमारे रोग से पीड़ित अविवाहित युवक-युवतियों के लिए तो यह एक अनुकरण करने योग्य उदाहरण है।'
 तभी मनीकरण आ गया था। हम टैक्सी से उतरकर घूमने निकल गए और कुछ देर के लिए हमारी बातों का सिलसिला टूट गया।
 कुछ घंटों बाद हम लोग टैक्सी में फिर साथ थे। हमारी टैक्सी मनाली की राह पर भाग रही थी।
 बातों के दौरान नन्दा ने बताया कि सिकंदराबाद में हमारा अपना फ्लैट है। संजय का रेडीमेड गारमेंट्स का शोरूम है।...हम दोनों मिलकर बिजनेस संभालते हैं...हम खुश हैं...तनाव रहित जीवन जी रहे हैं।'
 मैंने पूछा, "नन्दा एक बात बताओ। इस बीच तुम्हारी माँ बनने की इच्छा नहीं हुई ?'
        "कई बार हुई। यद्यपि डाक्टर्स  कहते हैं कि यह बीमारी न तो वंशानुगत है और न संक्रामक है फिर भी मन में कहीं एक भय समाया हुआ है कि हम दोनों ही इस रोग से पीड़ित हैं कहीं हमारा आने वाला बच्चा भी इस रोग का शिकार न हो जाए। हम एक प्रतिशत भी रिस्क नहीं लेना चाहते। इसीलिए हम इसे टालते रहे हैं...और अब हमने अनाथालय से एक बच्चा गोद लेने का निर्णय ले लिया है। यहाँ से लौटते ही हम इस दिशा में प्रयास प्रारंभ कर देंगे।'
 "लड़की गोद लेना चाहोगी या लड़का।'
     "जो जल्दी मिल जाएगा, वही ले लेंगे।...सुना है लड़का लेने वालों की लिस्ट इतनी लंबी है कि कई वर्ष इंतजार करना पड़ेगा। हम अब और इंतजार नहीं करना चाहते। लड़की लेकर भी हम उतने ही खुश होंगे।'
     बातों के दौरान समय का पता ही नहीं चला। मनाली पहुँचने की सूचना टैक्सी ड्राइवर ने दी तो हम ने अपना-अपना सामान सँभाला और टैक्सी से उतर गए। फिर हमने संजय और नन्दा से विदा ली और होटल की तलाश में निकल पड़े ।

( यह कहानी मेरे दूसरे कहानी संग्रह 'उजाले दूर नहीं' से ली गई है )

-- ईमेल - agarwalpavitra78@gmail.com

रविवार, 13 मार्च 2016

बदला

कहानी

                           बदला  

                                                 पवित्रा अग्रवाल  
   
       सीखचों में बंद जेल की अभिशप्त जिंदगी जीते-जीते कुँवर दीप सिंह अब ऊब चुका है। तनिक एकांत पाते ही उसके मस्तिष्क में विचारों का अंधड़ उठ खड़ा होता है।
       कल रूपा मिलने आई थी। वह तो मिल कर तभी लौट गई थी किंतु उसकी आवाज अभी तक उसके कानों में गूंज रही है। लगता है चारों दिशाओं से उसकी आवाज प्रतिध्वनित होकर एक तीखे शोर के साथ उसके कान के पर्दों को फाड़ डालेगी -"सुनो यह तुमने अच्छा नहीं किया, किसी का जीवन लेकर तुम्हें क्या मिला ? बोलो न, तुम्हें क्या मिला ? कुछ तो सोचा होता। एक बात बताऊँ ?.. तुमने बदला लेने के लिए हत्या भी की तो एक निर्दोष, निरपराध व्यक्ति की ! तुमने सोमू की हत्या क्यों की ? झगड़ा तो उसके बड़े भाई से हुआ था न ? जानते हो अपने बड़े भाई से सोमू की कभी खटपट हो गई थी। इस वजह से उन दोनों भाइयों में आपस में बोलचाल तक नहीं थी। उस निर्दोष की आहों की ज्वाला में हमारी पारिवारिक शांति, हमारा जीवन जल रहा है, जलता रहेगा। उसकी तड़पती भटकती आत्मा हमें चैन से नहीं रहने देगी।'
       कई बार यह सब सोचते-सोचते उसके दिमाग की नसें तन कर फटने को हो आती हैं। मन करता है अपने बाल नोच डाले। जमीन पर मार-मार कर सिर फोड़ ले या फिर बापू को ही...
       बापू कभी मिलने आते भी हैं तो वह कुछ क्षणों के लिए सँजोया हुआ संतुलन फिर खोने लगता है। उन्हें दूर से देखते ही उसके चेहरे के भावों में यकायक तीव्रता से परिवर्तन होने लगता है...मुट्ठियाँ बँध जाती हैं...आँखों में लाल डोरे खिंच आते हैं और वह  हिंस्र  पशु सा चीख उठता है-- "बापू मत आओ तुम मेरे पास, तुम मेरे पिता नहीं, दुश्मन हो, तुमने बदला सोमू या उसके भाई से नहीं बल्कि मुझ से व मेरे परिवार से लिया है।...
     तुम अपना अधिकांश जीवन तो जी चुके और कितने दिन जीना था तुम्हें ? पर मैं ने अभी क्या देखा है ?... मात्र चौबीस बसंत और अब ये अनंत, असीम पतझड़, कभी खत्म न होने वाला पतझड़। तुमने यह भी नहीं सोचा कि अपने अपमान का बदला लेना था तो स्वयं लेते, मेरे जीवन से खेलने का तुम्हें क्या हक था ? मेरी ही बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी जो तुम्हारी बातों में आ गया। जान भी ली तो एक मासूम निरपराध व्यक्ति की। मेरे बीबी-बच्चों की तरह उसकी बीवी भी मुझे कोसती रहेगी। दुश्मनी उसके भाई से थी, सोमू से नहीं ! बड़े भाई की सजा छोटा भाई क्यों भुगते ? बाप का बदला बेटा क्यों ले ?
     मैं उसे मारना नहीं चाहता था। शिकार की तलाश में मुझे साथ लेकर घूमते बापू तुमने मुझे सोचने का एक क्षण भी नहीं दिया। सोमू को देखते ही तुमने कहा - "शिकार सामने है यदि तू सच्चे ठाकुर से पैदा है तो उसे इसी क्षण ठंडा कर दे।'
 -"किंतु बापू तुम्हारा झगड़ा तो उसके बड़े भाई से हुआ था ? ' उसने प्रतिवाद किया।
 -"सब आस्तीन के साँप हैं । मार दे, सोच विचार कैसा ? मौका हाथ से निकल जाएगा।'
     मैंने निशाना उसके पैर पर साध कर मारा था किंतु तुमने फौरन बंदूक की नली उसके सीने पर कर दी। वह पीड़ा से कराह उठा था--मुझे क्यों मारते हो ? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ठाकुर ?'
     किंतु उसकी एक न सुनी,तुमने उसकी जान ले ली.... तुमने कहाँ मैंने।
 जेल में मिलने आए दोस्त नरेश ने भी कहा था--"दीप तुम तो पढ़े-लिखे समझदार युवक थे, तुम्हें यह क्या सूझी ? शांत मन कुछ तो आगा-पीछा सोचा होता। हत्या करना सजा देना तो नहीं है ? सजा तो तुमने स्वयं को ही दे ली। वह तो कुछ देर छटपटा कर मौन हो गया। बदला केवल जान लेकर ही लिया जा सकता था क्या ? फिर बदला लेने लायक ऐसी घटना भी भला क्या घटी थी ? साधारण सी कहा-सुनी का यह अंत। दो परिवार नष्ट हो गए।'
     हाँ उसने ठीक ही तो कहा था कि "दो परिवार नष्ट हो गए।' बात भी क्या थी ? बस यही कि सोमू के भाई शराब पिए हुए नौटंकी के समय किसी से लड़ - झगड़ रहे थे तो बापू को गुस्सा आ गया था,उन्होंने  फटकारते हुए कहा था --
 "क्या उधम मचा रखा है ? न साले खुद देखते हैं और न किसी को देखने देते हैं। बाहर जाकर लड़ो  मरो, हमारा मजा किरकिरा क्यों करते हो ?... धक्का देकर निकाल दो इन्हें बाहर।'
      इसी बात पर दोनों आपस में भिड़ गए थे। मार पीट तक की नौबत आते देख कर लोगों ने दोनों को अलग-अलग कर दिया था। एक-दूसरे पर गंदी गालियों की बौछार करते, धमकियाँ देते दोनों पृथक दिशाओं को चल दिये थे. इसी पर बापू ने उनसे बदला लेने की ठान ली थी।
      दीप सोचता है कि गलती बापू ने की थी। वहाँ अन्य इतने लोग नौटंकी देख-सुन रहे थे किसी के झगड़े के मध्य बापू को ही बीच में बोलने या गालियाँ देने की क्या जरूरत थी ? किंतु बापू का ठाकुरी अहम जागृत हो गया था -- "उसकी यह हिम्मत कि ठाकुर को गाली दे जाए ? भुगत लूँगा उसे भी, मिटा दूँगा उसका वंश।'
 और बापू का यही ठाकुरी दंभ हमें ले डूबा। नरेश ठीक ही कह रहा था कि सोमू तो कुछ देर छटपटा कर जीवन मुक्त हो गया किंतु अब मेरा यह जीवन तिल-तिल कर मिटते इस काल कोठरी में ही बीतेगा।
      उसे रूपा का स्मरण हो आया। वह कैसे रूपा के पीछे दीवाना सा घूमता था और तीन वर्ष पूर्व ही उसे ब्याह कर लाते समय वह आत्मविभोर हो खुशी से झूम रहा था जैसे कोई किला फतह कर आया हो।
 अब वह कितनी दुर्बल हो गई है। उसकी झील सी गहरी बड़ी-बड़ी काली आँखों को क्या हो गया है ? चारों तरफ काले घेरे उभर आए हैं। उसके स्वयं कुछ न कहने पर भी उसकी आँखों का सूनापन सब कुछ कह जाता है। उस दिन न चाहते हुए भी वह बोल उठा था--"रूपा कुछ भी नहीं बोलोगी ? अपनी क्या हालत बना ली है ?' इसके आगे उसकी वाणी अवरुद्ध हो गई थी, स्वर ही नहीं निकले थे।
     वह कुछ देर उसे चुप-चुप सी देखती रही थी किंतु वह उससे अपनी निगाह मिला पाने की सामर्थ्य  नहीं जुटा पा रहा था। अपराधी सा नजरों को किसी और दिशा में घुमा कर शून्य में ताकता रहा था।
        तब रूपा के शब्द उसे कहीं दूर से आते प्रतीत हुए थे-"मैं यह अपमानित जीवन नहीं जी सकती। राह चलते लोग उँगली व आँखों से इशारा करके एक-दूसरे को बताते हैं-"सोमू की हत्या इसी के पति ने की है...यह सोमू के हत्यारे की बीवी है---मन होता है डूब मरूँ।' कहते-कहते वह बिलख उठी थी।
      गोद में उसका अपना बच्चा भी माँ के स्वर में स्वर मिला कर रोता हुआ, अपने नन्हें-छोटे हाथों को मारने के लिए ऊपर उठाकर उसे गुस्से से घूरने लगा था मानो कह रहा हो---"मेरी माँ को तुम्हीं ने रुलाया है ! तुम्हीं ने मारा है।' उस समय वह अपने ही बच्चे की नजर में कितना अजनबी हो उठा था।
        बदला...बदला...उसने बदला किससे लिया ? सोमू से...सोमू के भाई से ? सोमू की पत्नी से ? रूपा से ? अपने बच्चे से या स्वयं से ? वह कुछ नहीं समझ पाता और अपने बालों को नोंचने लगता है।


( यह कहानी  मेरे दूसरे कहानी संग्रह    'उजाले दूर नहीं ' से ली गई है )

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--पवित्रा अग्रवाल