शनिवार, 16 अप्रैल 2016

एक दूजे के लिए

कहानी
                    एक दूजे के लिए
                                                                      पवित्रा अग्रवाल

             एयरपोर्ट पहुँचते ही मेरी नजर उन दोनों पर पड़ी थी। उन दोनों के ही चेहरे , हाथ-पैरों आदि संपूर्ण शरीर पर सफेद दाग थे। उनकी उम्र तीस वर्ष के आसपास रही होगी। उन को देखते ही मेरे मन में विचार उठा कि आखिर इनमें रिश्ता क्या है। ये दोनों भाई-बहन हैं, पति-पत्नी हैं या मित्र हैं ? सुनने में तो यही आया है कि आमतौर पर यह बीमारी वंशानुगत नहीं होती अतः हो सकता है ये भाई-बहन न हों।  तो मित्र हो सकते है या फिर पति-पत्नी। यदि पति-पत्नी ही हैं तो निश्चय ही यह बीमारी दोनों को शादी के बाद तो नहीं हुई है। इसका मतलब दोनों ने जानते-बूझते ये शादी की होगी। उनसे बात करने को मेरा मन उत्सुक था।  जाने-अनजाने मेरी नजरें बार-बार उनकी तरफ उठ जाती थी। इस बात का अहसास उन्हें भी हो चुका था। जब हमारी नजरें आपस में टकरा जातीं तो मैं दूसरी तरफ देखने लगती थी।
          मैं सपरिवार दिल्ली से कुल्लू जा रही थी। मुझे सुखद अनुभूति तब हुई जब मैंने उन्हें भी उसी प्लेन में चढ़ते देखा। कुल्लू के भुंटर हवाई अड्डे पर हम सब उतरे तो वह दोनों हमारे पास आए।
 उन्होंने अपना परिचय दिया। वह संजय और नन्दा थे। वह भी मनाली जाना चाहते थे। मनाली जाने से पहले वह मनीकरण जाने-के इच्छुक थे। हमारा भी यही प्रोग्राम था। वह हमारे साथ टैक्सी शेयर करना चाहते थे। हमने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। मनीकरण के रास्ते में नन्दा से बात करने का अवसर मिला।
         वह दोनों पति-पत्नी थे। चार वर्ष पूर्व ही दोनों का विवाह हुआ था। अपने विवाह की चौथी वर्षगाँठ मनाने वह कुल्लू-मनाली-शिमला घूमने निकले थे। वह अपने विवाह की हर वर्षगाँठ पर इसी तरह देश के विभिन्न भागों में घूम चुके हैं। आगे भी उनकी यही योजना है। उनसे बात करते समय ज्ञात हुआ कि वह सिकंदराबाद में रहते हैं।...दोनों बाहों में बाहें डाले इतने खुश थे, जैसे विवाह की वर्षगाँठ नहीं, हनीमून मनाने आए हैं।
 मैंने नन्दा से पूछा,- "नन्दा तुम्हारा प्रेम-विवाह है या माता-पिता द्वारा तय किया गया विवाह है ?'
 "इसे आप लव मैरेज भी कह सकती हैं और अरेन्ज मैरिज भी।'
 "वह कैसे ?
 "पहले हम दोनों ही मिले थे। घर वालों की मुलाकात बाद में हमने ही कराई थी।'
 "आप दोनों कहाँ टकरा गए ? '
 "हम दोनों तो बने ही एक-दूसरे के लिए थे । अत: कहीं-न-कहीं तो हमें टकराना ही था।' चहकते हुए संजय ने पहली बार मुँह खोला था।
       नई नवेली की तरह लजाती हुई नन्दा बोली, "अपनी इस स्किन डिजीज की वजह से मैं स्किन स्पेशलिस्ट के यहाँ जाती थी। वहाँ इसी बीमारी के बहुत मरीज आते थे। वहीं हमारी मुलाकात हुई थी।...यही मुलाकात धीरे-धीरे दोस्ती में बदल गई। करीब चार वर्ष लगातार मिलते रहने के बाद हमें लगा कि शादी करके हम एक-दूसरे के साथ खुश रह सकते हैं। अपना-अपना निर्णय हमने अपने घर वालों को बता दिया।'
 "घर वालों ने कोई आपत्ति नहीं की ?'
       "अरे नहीं, वह तो खुश हो गए। उनके तो मन की मुराद ही पूरी हो गई थी। असल में मेरे माता-पिता मेरे भविष्य को लेकर बहुत परेशान रहते थे। उनका सोचना था कि माँ-बाप जीवन भर साथ नहीं दे सकते। भाई अभी तो अच्छे हैं। शादी के बाद पता नहीं उनमें क्या बदलाव आए। भाई के सहारे मुझे छोड़ कर वह खुश नहीं होते। उन्होंने शादी के लिए भी बहुत भागदौड़ की। कुछ जरूरतमंद अपनी व्यक्तिगत परेशानियों की वजह से मुझ से  शादी के लिए तैयार भी हो गए थे। एक लड़के के दो बहनें थीं। माँ-बाप नहीं थे। बहनों की शादी की उम्र निकली जा रही थी किंतु शादी के लिए उसके पास धन नहीं था। वह स्वयं भी बेरोजगार था।
किंतु पढ़ा-लिखा व सुंदर था। पापा ने उसकी बहनों की शादी का खर्च उठाने की जिम्मेदारी ले ली थी और उसे अपनी फैक्ट्री में एक अच्छी पोस्ट देने का विश्वास भी दिलाया था। अत: वह शादी के लिए तैयार हो गया था....
        पर मैंने इस शादी से साफ इन्कार कर दिया। यह शादी नहीं एक सौदा था। अपनी बहनों को अच्छा भविष्य देने के लिए उस भाई ने मुझ जैसी लड़की से शादी करने का फैसला कर लिया था। किंतु मैं जानती थी वह मुझे मन से कभी प्यार नहीं कर पाता। हो सकता है अपना काम पूरा हो जाने पर वह मुझे त्याग देता या न भी त्यागता तब भी मैं और वह दोनों खुश नहीं रह पाते। उसकी नजरों में उपजी उपेक्षा या नफरत मैं सह नहीं पाती।...वह शादी सुखद भविष्य की गारंटी नहीं थी।...इससे तो मैं बिना शादी के ही ठीक थी...मेरा ये विचार मात्र काल्पनिक भी नहीं था। क्लीनिक पर खाली समय में बहुत से मरीजों से हमारी बातचीत होती रहती थी। उन के दुख-सुख, अनुभव सुनने के बाद ही मैंने ये फैसला किया था कि यदि शादी करूँगी तो किसी अपने जैसे से। जब हम दोनों एक ही रोग से पीड़ित होंगे तो एक-दूसरे की उपेक्षा या एक-दूसरे से घ्रणा तो कर नहीं सकते...और उन्हीं दिनों संजय से मुलाकात हुई...और यह मुलाकात प्यार में बदल गई।...फिर हमारी शादी हो गई।'
      संजय बोला- "देखिए हमारी शादी को चार वर्ष हो गए किंतु हमारे बीच कभी कोई समस्या पैदा नहीं हुई।...हम बहुत खुश हैं बल्कि हमने अपने जैसे भाई-बहनों के सामने एक उदाहरण पेश किया है।...एक हल निकाला है।...जिसे वह भी अपना सकते हैं।...मैं ठीक कह रहा हूँ न नन्दा ? '
       "हाँ संजय हमारे रोग से पीड़ित अविवाहित युवक-युवतियों के लिए तो यह एक अनुकरण करने योग्य उदाहरण है।'
 तभी मनीकरण आ गया था। हम टैक्सी से उतरकर घूमने निकल गए और कुछ देर के लिए हमारी बातों का सिलसिला टूट गया।
 कुछ घंटों बाद हम लोग टैक्सी में फिर साथ थे। हमारी टैक्सी मनाली की राह पर भाग रही थी।
 बातों के दौरान नन्दा ने बताया कि सिकंदराबाद में हमारा अपना फ्लैट है। संजय का रेडीमेड गारमेंट्स का शोरूम है।...हम दोनों मिलकर बिजनेस संभालते हैं...हम खुश हैं...तनाव रहित जीवन जी रहे हैं।'
 मैंने पूछा, "नन्दा एक बात बताओ। इस बीच तुम्हारी माँ बनने की इच्छा नहीं हुई ?'
        "कई बार हुई। यद्यपि डाक्टर्स  कहते हैं कि यह बीमारी न तो वंशानुगत है और न संक्रामक है फिर भी मन में कहीं एक भय समाया हुआ है कि हम दोनों ही इस रोग से पीड़ित हैं कहीं हमारा आने वाला बच्चा भी इस रोग का शिकार न हो जाए। हम एक प्रतिशत भी रिस्क नहीं लेना चाहते। इसीलिए हम इसे टालते रहे हैं...और अब हमने अनाथालय से एक बच्चा गोद लेने का निर्णय ले लिया है। यहाँ से लौटते ही हम इस दिशा में प्रयास प्रारंभ कर देंगे।'
 "लड़की गोद लेना चाहोगी या लड़का।'
     "जो जल्दी मिल जाएगा, वही ले लेंगे।...सुना है लड़का लेने वालों की लिस्ट इतनी लंबी है कि कई वर्ष इंतजार करना पड़ेगा। हम अब और इंतजार नहीं करना चाहते। लड़की लेकर भी हम उतने ही खुश होंगे।'
     बातों के दौरान समय का पता ही नहीं चला। मनाली पहुँचने की सूचना टैक्सी ड्राइवर ने दी तो हम ने अपना-अपना सामान सँभाला और टैक्सी से उतर गए। फिर हमने संजय और नन्दा से विदा ली और होटल की तलाश में निकल पड़े ।

( यह कहानी मेरे दूसरे कहानी संग्रह 'उजाले दूर नहीं' से ली गई है )

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