गुरुवार, 13 अगस्त 2015

अधिकार के लिए

  (     मेरे दूसरे  कहानी संग्रह   'उजाले दूर नहीं "  में से एक कहानी )

            यह कहानी करीब  30 वर्ष पूर्व लिखी गई थी  


कहानी

          अधिकार के लिए
                                                                 
                                                                        पवित्रा अग्रवाल

  उत्तर प्रदेश से दूर दक्षिण के इस प्रांत में अचानक मेरी मुलाकात कमलेश से हो जाएगी ऐसा मैंने सोचा भी नहीं था। मैं बस में चढ़ रही थी और कमलेश उसी बस से उतर रही थी। एक-दूसरे से हमारी नजरें मिली, आँखों में कुछ पहचान उभरी और हम एक-दूसरे से लिपट गए थे।
 "अम्माँ आप लोगों को बस में नहीं चढ़ना तो न सही, लेकिन हमें तो बस में चढ़ने को रास्ता दो।'
  तब हमें ध्यान आया कि हम अन्य लोगों का रास्ता रोके खड़े हैं। मैंने पूछा, "कमलेश तू यहाँ कब आई ?'
 "नीरू यही सवाल तो मैं तुझसे भी पूछना चाहती हूँ।'
 "मैं यहाँ तीन वर्ष से हूँ। मेरे पति बैंक में हैं। ट्रान्सफर होकर यहाँ आए हैं।'
 कमलेश ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे बस में चढ़ने से रोक लिया और बोली, "नीरू मेरा घर पास में ही है, तुझे जल्दी न हो तो घर चल, बहुत सी बातें करेंगे।'
 ठीक है कमलेश, मुझे घर जाने की कोई जल्दी नहीं है। इस बहाने तेरा घर भी देख लूँगी। तुझसे मिलकर मुझे कितनी खुशी हुई है यह मैं व्यक्त नहीं कर सकती लेकिन तेरे पति तो व्यापार करते थे। तू इस शहर में कैसे आ गई ?'
 "नीरू ये बहुत लंबी कथा है।....घर चल कर सब बताऊँगी।'
 हम दोनों बातें करते कमलेश के घर तक पहुँच गए। लिफ्ट में प्रवेश करते हुए मैंने कमलेश से पूछा, "तुम कौन से फ्लोर पर रहती हो ? तुम्हारा ये कोम्पलैक्स तो बहुत खूबसूरत बना हुआ है। यहाँ दो बेड रूम फ्लैट का क्या किराया होगा ?'
   "किराया चार हजार के आसपास है। मैं चौथे फ्लोर पर रहती हूँ।' फ्लैट का ताला खोलकर कमलेश ने मुझे अपने सुसज्जित ड्राइंग रूम में बैठाया। मैं अपनी जिज्ञासा और अधिक रोक नहीं पा रही थी।
 मैंने पूछा, "कमलेश तेरी शादी तो रमेश से हुई थी। उन दिनों तेरी शादी ने उस छोटे से कस्बे को हिलाकर रख दिया था। जैसे कोई भूकंप आ गया हो। तूने जो कदम उठाया था वह सबके लिए एक नई बात थी। इतनी हिम्मत तूने कहाँ से जुटाई थी ? तभी तुझ से मिलने को मेरा बहुत मन कर रहा था, लेकिन उन्हीं दिनों पापा का ट्रांसफ़र हो गया था। शादी के समय तो तू गर्भवती थी। क्या हुआ था बेटा या बेटी ?...और वो कहाँ हैं ?...'
 "हाँ तब मेरे बेटी पैदा हुई थी। वह अब दस वर्ष की हैं। उसका नाम सपना है। इस समय वह स्कूल गई हुई है। नीरू बातें तो आराम से होती रहेंगी पहले ये बता गर्म लेगी या ठंडा ?'
 "पहले तो एक गिलास ठंडा पानी पिला दे कमलेश, फिर चाय चलेगी।'
 "पानी का गिलास मुझे देकर कमलेश रसोई में चली गई। मेरा मन अतीत में भटकने लगा था। करीब दस-ग्यारह वर्ष पहले की बात है एक दिन अचानक शहर में तहलका सा मच गया था। भाई ने बाहर से आकर बताया था कि कमलेश नाम की एक लड़की ने चौराहे की एक दुकान पर आमरण अनशन कर दिया है। सुना है दुकान मालिक के बेटे ने मंदिर में उससे शादी की थी और अब जब वह माँ बनने वाली हैं तो उसने उसे पत्नी मानने से इन्कार कर दिया है। उसकी कल शाम को ही किसी सेठ की बेटी से सगाई होने वाली है।
    महिला संस्था की बहुत सी सदस्याएँ वहाँ लड़के के खिलाफ नारे लगा रही हैं। दुकान पर बैनर लगे हैं---
 "मेरे बच्चे को पिता का नाम दिलाओ या यहीं मेरी चिता जलाओ' "पत्नी का अधिकार लेकर रहूँगी'- तब भाई ने ही बताया था कि कमलेश को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी है। पुलिस को स्थिति सँभालनी पड़ी है। पुलिस वहाँ किसी को ठहरने नहीं दे रही। लोग आते जा रहे हैं और आगे बढ़ते जा रहे हैं।
 यह तो मुझे बाद में पता चला था कि ये कमलेश वही है, जो इंटर में मेरी दोस्त थी। कॉलेज में भी वह बहुत उदास रहती थी। अपनी सौतेली माँ द्वारा सताए जाने के किस्से वह अक्सर मुझे सुनाती रहती थी और बहुत बार तो वह रो भी देती थी। देखने में वह सीधी-सादी लड़की थी। मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि कभी वे ऐसा भी कुछ कर सकती है।
    कमलेश द्वारा चाय की ट्रे मेज पर रखने से मैं अतीत से वर्तमान में लौट आई। मेरे मन में कमलेश को लेकर बहुत सी जिज्ञासा थीं, जिनका समाधान मैं कमलेश से चाहती थी। चाय पीते हुए मैं और अधिक सब्र नहीं कर पाई और बातों की धारा उसी तरफ मोड़ते हुए मैंने पूछा, "कमलेश रमेश के क्या हाल हैं, वह कहाँ हैं ?'
  "रमेश को तो मैंने तभी छोड़ दिया था। वह शादी भी कोई शादी थी। वह ज़बरदस्ती की शादी थी। वह लंबी नहीं खिंचेगी यह मैं पहले ही जानती थी किंतु अपने बच्चे को पिता का नाम दिलाने के लिए मुझे मजबूरी में वह सब करना पड़ा था।'
   "कमलेश तू देखने में तो बड़ी डरपोक सी थी। तुझमें इतनी हिम्मत कहाँ से आ गई कि तू दुकान पर भूख हड़ताल करने बैठ गई ?'
 "असल में मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी। इन हालातों में अन्य कुंवारी माँओं की तरह मैं भी नदी में कूद कर जान देने गई थी किंतु मुझे एक महिला ने बचा लिया, उस महिला का नाम रत्ना था। वह किसी सामाजिक संगठन की सदस्या थी। मेरे आत्महत्या का कारण सुनकर वह मुझ पर बिगड़ पड़ी।
 उसने कहा-- "एक गलती पहले कर चुकी हो अब दूसरी करने जा रही हो। गलती सिर्फ तुम्हारी ही नहीं है। प्यार में रमेश ने तुम्हें धोखा दिया है। सजा तुम अकेली क्यों भुगत रही हो। लड़कियों की इसी कायरता से लड़कों को प्रोत्साहन मिलता है। लड़की में जरा भी हिम्मत हो तो वह ऐसे लोगों को सबक सिखा सकती है। एक को सबक सिखाने का मतलब है समाज के अन्य लोगों को भी सबक मिल जाएगा। इसमें सबक लडकों को ही नहीं, लड़कियों को भी मिलेगा ताकि वह ऐसी बेवक़ूफ़ियाँ न करें जिससे बाद में उन्हें शर्मिंदा होना पड़े।'
       "कमलेश रत्ना ने कहा तो ठीक ही था लेकिन एक बात बता प्यार करना गलत नहीं है किंतु प्यार में शादी से पहले सब सीमाएँ तोड़ देना भी तो सही नहीं है ? तू इस हद तक कैसे पहुँच गई कि गर्भवती हो गई ?'
  "नीरू की तो मैंने भी शादी ही थी किंतु मेरी अज्ञानता की वजह से वह शादी एक छलावा सिद्ध हुई। हमने बाकायदा मंदिर में रमेश के तीन दोस्तों के सामने शादी की थी। शादी की सभी रस्में मंदिर के पुजारी ने पूरी की थीं किंतु मेरे पास इसका काई प्रमाण नहीं था। फोटो भी खिंचवा लिया होता तो कुछ तो सबूत होता।'
  "शादी के बाद क्या तुम साथ रहने लगे थे ?'
  "नहीं नीरू शादी के बाद हम साथ नहीं रहे। रमेश का कहना था "मौका देख कर माँ को सब बता दूँगा। तुम तो जानती हो कि मैं पिता के साथ ही बिजनेस करता हूँ यदि उन्होंने घर से निकाल दिया तो मैं सड़क पर आ जाऊँगा।'
  अत: उसने शादी की बात किसी से भी कहने को मुझे मना कर दिया था। कभी-कभी हम उसके एक दोस्त के कमरे पर मिल लेते थे। उसका दोस्त पढ़ने के लिए किराए पर कमरा लेकर वहाँ रहता था।'
  "फिर क्या हुआ ?'
   "जब मुझे माँ बनने की बात का ज्ञान हुआ तो मैंने रमेश को बताया। यह सुनकर वह घबरा गया और बोला, "तू किसी महिला डॉक्टर से बात कर के गर्भपात करा ले, रुपये मैं दे दूँगा।...मेरे घर वालों को यह बात पता नहीं चलनी चाहिए वरना बात बिगड़ जाएगी' लेकिन मैंने रमेश की बात नहीं मानी तो उसने रंग बदल लिया और बोला    - "क्या सबूत है कि मैं ही इस बच्चे का बाप हूँ या मैंने तुझसे शादी की थी ? यदि सबूत है तो लाकर दिखा।'
    "सच नीरू उसका बदला रूप देखकर समझ गई थी कि मैं छली गई हूँ। मन हो रहा था धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ। मैं मंदिर गई तो पुजारी ने पहचान ने से इंकार कर दिया। उसके तीनों दोस्त दूसरी जगह से यहाँ पढ़ने आए हुए थे। छुट्टियों में वे अपने गाँव वापस चले गए थे। मैं अकेली क्या करती ?...कहाँ से सबूत जुटाती ?'
    "कमलेश तेरे घर वालों को जब इस बात का पता चला तो क्या हुआ ?'
 "घरवाले थे ही कौन ? तुझे तो पता है कि माँ बचपन में ही मर गई थी। पिता ने तभी दूसरी शादी कर ली थी। सौतेली माँ ने एक दिन चैन से नहीं जीने दिया। फिर उनके भी दो बेटियाँ और एक बेटा पैदा हो गया। फिर तो मैं उनकी नौकर बन कर रह गई थी। माँ से झगड़ा करके पिता ने मुझे इंटर करवाया था। रोज-रोज के कलह से तंग आकर वह दिल के मरीज बन गए। उन दिनों तो उन्हें पैरालैसिस का अटैक हुआ था और वह बिस्तर पर थे। माँ को जब पता चला तो उन्होंने चोटी पकड़ कर मुझे घर से बाहर निकाल दिया और बोली, "कलमुही अब कभी लौट कर यहाँ मत आना। जरा भी शर्म बाकी है तो नदी में जाकर डूब मरना। मैं अपने बच्चों पर तेरी छाया भी नहीं पड़ने दूँगी।' घर से निकाले जाने पर मैं नदी में कूद कर आत्महत्या करने गई थी, वहाँ रत्ना ने मुझे बचा लिया।'
 "फिर क्या हुआ कमलेश ?'
 "रत्ना के कहने पर मैं रमेश के घर गई तो उसका घर सजाया जा रहा था, मालूम हुआ कि दूसरे दिन रमेश की सगाई है। उसकी माँ को मैंने अपनी व्यथा-कथा सुनाई किंतु उन्होंने मुझे अपमानित करके घर से निकाल दिया। फिर मैं दुकान पर गई, मुझे देखते ही रमेश का चेहरा सफेद पड़ गया। उसने मुझसे कहा-  "दस-बीस हजार मुझ से लेकर मेरा पीछा छोड़ दो।'
       तभी मैं वहाँ बैठ गई और बोली, "मैं लौटने के लिए यहाँ नहीं आई हूँ, सबके सामने मुझे पत्नी स्वीकार कर वरना तेरी इस दुकान पर बैठ कर अपनी जान दे दूँगी। वह तो दुकान छोड़ कर भाग गया। थोड़ी ही देर बाद रत्ना महिला मंडल की सदस्याओं को लेकर वहाँ आ गई और उन्होंने मेरे पक्ष में रमेश के खिलाफ नारे लगाने प्रारंभ कर दिये।'
         "हाँ, ये तो मुझे मालूम है। सुना था रमेश के ससुराल वाले भी तेरे पास आए थे।'
 " हाँ रमेश के ससुराल वाले मेरे एहसानमंद थे। वो कह रहे थे कि तुम्हारे इस कदम से ही हमारी बेटी की जिंदगी ख़राब होने से बच गई। वरना रमेश के दुष्कर्मों का हमें पता भी नहीं चलता। वह मुझे आश्वासन दे के गए कि हम तेरे साथ हैं। कभी भी किसी मदद की जरूरत हो तो हमें फोन कर देना। रमेश लापता था .मैंने भी मन में ठान ली थी कि या तो जान दे दूँगी या अपना अधिकार लेकर रहूँगी।"
    "हाँ कमलेश इसके बाद की बात तो मुझे मालूम है। शहर के कुछ उत्साही युवक दूसरे दिन रमेश को कहीं से
ढूँढ़ कर लाए थे और चौराहे पर ही विवाह का मंडप तैयार करके जनसमूह के सामने उससे तेरी शादी कराई थी। सुना है उसके पिता ने भी सबके सम्मुख तुझे अपनी बहू स्वीकार किया था। शादी के बाद शायद तेरे ससुर ने ही जूस पिला कर तेरी भूख हड़ताल समाप्त करवाई थी। यह भी सुना था कि जनसमूह में से बहुत से लोगों ने कन्यादान की रस्म में भाग लिया था। खुली जीप में तुम दोनों को बैठा कर शहर में तुम्हारा जुलूस निकाला गया था। हमारे घर के सामने से भी तुम्हारी जीप गुजरी थी तभी तो मुझे यह ज्ञात हुआ कि यह घटना तुम्हारे साथ घटी है।...उसके बाद क्या हुआ यह मुझे नहीं मालूम।'
  "उसके बाद जीप से मुझे रमेश के घर ले जाया गया। वहाँ तो मातम का माहौल था। माता-पिता दोनों ने रमेश को बहुत फटकारा। यदि रमेश उनका इकलौता बेटा न होता तो शायद वह उसे जायदाद से बेदखल करके घर से ही निकाल देते।'
 "उस घर में मुझसे किसी ने पानी तक भी नहीं पूछा। भूख से बेहाल मैं एक कमरे में पड़ी आँसू बहा रही थी। तभी मैंने सुना रमेश के पिता किसी से कह रहे थे, "उस लड़की को किसी ने खाने को कुछ दिया या नहीं। वैसे भी वह दो दिन से भूखी है। कहीं मर-मरा गई तो हत्या हमारे सिर पड़ेगी। शहर का माहौल बिगड़ा हुआ है और हमारे खिलाफ भी है।' तब से उनकी काम वाली थाली परोस कर कमरे में दे जाती थी। रमेश तो सामने बहुत कम आता था।'
  बस तनावों के बीच ऐसे ही समय गुजरता रहा। कुछ महीनों बाद सपना का जन्म हुआ। रमेश की काम वाली को मुझसे बहुत हमदर्दी थी वह मेरी जरूरतों का ध्यान रखती थी। फिर भी थी तो वह नौकरानी ही। उसकी भी सीमाएँ थीं। बच्ची रोती-बिलखती रहती थी, मुझे भी बच्चे पालने का अनुभव नहीं था।'
   'कमलेश, रमेश या उसके मां-बाप किसी ने भी बच्ची को सँभालने में तुम्हारी कोई मदद नहीं की ?'
  "उन्होंने लोगों के डर से मुझे अपनाया था, मन से नहीं। कोई कभी यह भी नहीं पूछता था कि बच्ची क्यों रो रही है। मैं ही रमेश को बाप की जिम्मेदारी निभाने की याद दिलाती थी तो वह भड़क उठता था। एक-दो बार उसने हाथ उठाने की कोशिश भी की। उसकी माँ भी हर समय ताने मारती रहती थी। मैं चाहती तो पुलिस में रिपोर्ट लिखा सकती थी। जनता से, महिला संगठन से शिकायत कर सकती थी लेकिन मैं भी थक गई थी और कोई नया तमाशा खड़ा करना नहीं चाहती थी।...मैंने रमेश का घर छोड़ने का फैसला रत्ना को बता दिया था।'
  रत्ना बोली-"ऐसे कैसे घर छोड़ देगी ?...यदि वह पत्नी व बहू का सम्मान नहीं दे सकते तो उन्हें बच्ची के पालन पोषन के लिए धन देना होगा।....हम लोग उनसे बात करते हैं'। धन की उनके पास कमी नहीं थी। वह एक लाख रुपये देने को तैयार हो गए।'
  "रुपये देने को वे आसानी से तैयार हो गए ?'
 "रमेश के पिता तो एक बार में तैयार हो गए शायद उन्हें यह सौदा सस्ता ही लगा था पर रमेश की माँ ने डंक मारते हुए कहा था यदि पैसा ले कर ही हमारा पीछा छोड़ना था तो उतना बड़ा तमाशा करने की क्या जरूरत थी...हम तो पहले भी दे रहे थे ।'
   तूने उन्हें जवाब नहीं  दिया ?
   "मैं चुप कैसे रह सकती थी, मैं ने कहा था -- "तमाशा न करती तो आपकी शराफत का नकाब कैसे उतरता ? वह तमाशा आप के लिए होगा... मेरे लिए तो एक लड़ाई थी ,मैं अपने बच्चे को नाजायज औलाद की गाली विरासत में नहीं देना चाहती थी।....अब आप जो दे रहे हैं वह एहसान या खैरात नहीं  हम दोनों का अधिकार है उस पर।'..फिर उनका मुँह बंद हुआ था।....'
  समाज के कुछ जाने-माने लोग जिनमें रत्ना व महिला संगठन की कुछ सदस्याएँ भी थीं, के सामने हमने एक-दूसरे को आपसी सहमति से तलाक़ देने के पेपर साइन किए और एक लाख रुपये लेकर मैंने घर छोड़ दिया। मैं उस शहर से ही बहुत दूर चली जाना चाहती थी।'
   "फिर यहाँ दक्षिण में कैसे आ गई ?'
  "रत्ना के कुछ रिश्तेदार यहाँ रहते थे। मेरे आग्रह पर वह मुझे यहाँ ले आई। उसके रिश्तेदारों ने मेरी बहुत मदद की। अपने घर के पास ही मुझे कमरा दिलवा दिया। बैंक में मेरा खाता खुलवा दिया। यहाँ आकर मैंने ब्यूटीशियन का कोर्स किया। तब मेरी बेटी को वही सँभालते थे।....
 कोर्स करने के बाद मैंने एक बैडरूम का फ्लैट किराए पर ले लिया और उसके एक हाल में ब्यूटी पार्लर शुरू कर दिया। धीरे-धीरे पार्लर चल निकला।...अब मेरे पास अपना ये फ्लैट है। इसी में ब्यूटी पार्लर भी चला रही हूँ। बेटी सपना पाँचवीं क्लास में पढ़ रही है।...बस ऐसे ही जिंदगी कट रही है।'
  मैंने पूछा, "तेरी बेटी सपना कभी अपने पिता के विषय में नहीं पूछती ?'
 "क्यों नहीं पूछती ? रोज-रोज उसके द्वारा पूछे गए सवाल मुझे बेचैन कर देते हैं। पापा देखने में कैसे थे प्रश्न का हल तो मैंने उसे शादी के फोटो दिखा कर कर दिया।"पापा कहाँ है ? हमारे साथ क्यों नहीं रहते,... अनेकों ऐसे सवाल है, जिनका अंत करने के लिए मन होता है उससे कह दूँ कि उसके पिता मर चुके हैं किंतु झूठ नहीं बोल पाती। उसे यही कह कर समझा देती हूँ कि तुम्हारे पिता ने हमें छोड़ कर दूसरी शादी कर ली है। इसलिए वे हमार साथ नहीं रहते।'
     " रमेश ने तो दूसरी शादी कर ली ? '
  "पता नहीं मैंने कभी उसके बारे में जानने की कोशिश नहीं की। जिस राह जाना नहीं उसका पता क्या पूछना ? मैं एक दुःखद स्वप्न समझ कर उसे भुला देना चाहती हूँ।'
   "क्या तेरे मन में पुन: शादी का ख्याल कभी नहीं आया ?'
 "मन का क्या है, यह तो बहुत कुछ चाहता है पर मन को मारना पड़ता है...अपनी नियति से मैंने समझौता कर लिया है। अब तो सपना की अच्छी परवरिश करना ही मेरा एकमात्र स्वप्न है।'
   कमलेश बहुत थकी हुई व उदास दिखने लगी थी। समय बहुत हो चुका था। दुबारा फिर मिलने का वादा करके भारी मन से मैं लौट आई थी।


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पवित्रा अग्रवाल

 ईमेल --  agarwalpavitra78@gmail.com