बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

बोझ

कहानी
                           

                               बोझ                           
                                                
(मेरे पहले कहानी संग्रह 'पहला कदम ' में से .यह कहानी करीब 35- 40 वर्ष पूर्व लिखी गई थी )
                                     
                                                  पवित्रा अग्रवाल   

       न्यू ईयर ग्रीटिंग के साथ उसका पत्र भी आया था .लैटर पैड तो उसने पहले ही सुनील‘एन’सिन्हा नाम से छपवा लिया था .आज मिले ग्रीटिंग कार्ड में भी उसने  इसी नाम का उपयोग किया है.सुनील सिन्हा के बीच ‘एन’ मेरे देखते देखते ही जुड़ा है .’एन’ का अर्थ है नूतन ,यह मैं  जानती हूँ फिर भी इसकी उपेक्षा करती रही .मन की कोमल भावनाओं को स्वयं पर कभी हावी नहीं होने दिया पर आज मैं अपनी प्रकृति के विपरीत संवेदन शील हो उठी हूँ .
      शायद उसने यह पत्र बड़ी उखड़ी हुई मनःस्थिति में लिखा है.पन्नों में अपने भावों के प्रति मेरा कोई रेस्पोंस न पाकर वह खीज जाता है .बहुत कुछ लिखना चाह कर भी लिख नहीं पाता किन्तु उसकी खीज भरी पंक्तियाँ कुछ न कह कर भी सब कह जाती हैं . 
      उसने लिखा है - “मैं ने महसूस किया है कि मेरे पत्रों का उत्तर आपकी तरफ से अधूरा ही रहा है ...यह भी आदत है ...अदा है,जो मुझे प्रिय है. संक्षिप्तता , सारग्रहिता,गंभीरता ही तो जीवन में पे करती हैं वरना हम जैसे लोग कुछ भी कहते रहें क्या लाभ है ?”
      मैं जानती हूँ वह क्या कहता रहा है या क्या कहना चाहता है .यह भी ठीक है कि मैं ने हमेशा ही उसकी भावनाओं को गंभीरता भरे संक्षिप्त पत्रों द्वारा चूर चूर किया है .
     आज वैसे भी मेरा मन क्षोभ से भरा है .भविष्य के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण निर्णय मैं आज ही लेना चाहती हूँ .अब और सहा नहीं जाता.इधर काफी दिनों से देख रही हूँ कि पापा के चहरे की रौनक ही समाप्त हो गई है ...हड्डियाँ उभर आई हैं .चिड़चिड़ाये से रहते हैं...घर से बाहर जाने में असुविधा महसूस करते हैं .माँ भी मोहल्ले – पडौस,जाति बिरादरी में जाने से कतराने लगी हैं .लोगों के प्रश्न कि नूतन की शादी कब करोगे ?...बड़ी हो गई  है फिर तो कोई दूजिया ही मिलेगा...लड़का ढूँढने में मेहनत तो करनी ही पडेगी ...कोई अपने आप तो तुम्हारे दरवाजे पर तिलक करने आएगा नहीं ...लड़की को इतना नहीं पढ़ाना चाहिए था’ आदि प्रश्नों व् टिप्पणियों से ऊब गए हैं .
       माँ से पापा का दुखी स्वर ...अब मैं किसी लड़की को इतना नहीं पढ़ाऊंगा ...पछताया ...लोग मुझे टोकते हैं .तुम माँ बेटी ने मेरी एक नहीं चलने दी वरना आज नूतन महलों में रहती ,कारों में सफ़र करती और आस पास नौकरों की लाइन लगी होती .लड़का सुन्दर था ,संपन्न था बस नूतन की तुलना में कम पढ़ा था ...वह लोग कितना पीछे पड़े थे कि हमें पैसा नहीं लड़की चाहिए ’.किन्तु तुम्हें पढ़ा लिखा लड़का चाहिए था...कहाँ से उनका मुंह भरूं .किसी को विदेश जाने का खर्चा चाहिए तो किसी को एक मोटी रकम नकद चाहिए .’
    यह सब सुन कर मेरा मन व्यथित हो उठता है .जाति बिरादरी ,परिवार के घेरे में कैद मैं चिड़िया सी फड़फड़ा जाती हूँ.घर में कई बार यह शादी का प्रसंग छिड़ा है पर न जाने क्यों यह प्रसंग मुझ में कभी भी रोमांचित करने वाली सुखद अनुभूति या संवेग उत्पन्न नहीं कर पाया है .इस के प्रति मैं हमेशा तटस्थ ही रही हूँ जैसे यह सब किसी दूसरे के बारे में सोचा जा रहा हो .और इन्ही क्षणों में मैं ने स्वयं को एक निश्चय एक  निर्णय का ताना बाना बुनते पाया है .इच्छा हुई है कि कह दूं ‘मुझे नहीं करनी शादी ’इसी लिए मैं प्रयत्न करने लगी हूँ कि कोई एसी नौकरी मिल जाये जिस से मैं अपने नैतिक मूल्यों को सुरक्षित रख सकूं किन्तु बिना किसी ठोस आधार के उन्हें अपना शादी न करने का निर्णय कैसे सुना दूं .वह तो यही कहेंगे कि कब तक लोगों के ताने सुनते हुए तुम्हारा बोझ उठायें ?’
      तभी सुनील का पत्र मानो मेरी समस्याओं के समाधान रूप में इस कैद से मुक्त करने के लिए प्रस्तुत होगया .किन्तु मैं जानती हूँ कि एक विजातीय से यह विवाह संभव नहीं बिलकुल असंभव है .
   सुनील से मुलाकात भी मात्र एक संयोग ही था .किसी पत्रिका में प्रकाशित लेख पर प्रतिक्रिया स्वरूप एक अंजान इंजीनियर युवक का पत्र, ...पत्र- मित्रता का आग्रह .किसी लडके से पत्र - मित्रता का यह पहला अवसर था .मैं जवाब देने में भी झिझक रही थी .जवाब दिया और पत्रों का सिलसिला चल निकला .धर्म , साहित्य ,घर बाहर .व्यक्तिगत रुचियाँ हमारे पत्रों का विषय रहीं .
     पत्रों में कई बार उसने ‘तुम सॉरी आप ’ लिख कर बड़े नाटकीय ढंग से तुम पर आने का प्रयास किया था .सोचा होगा शायद मैं ही लिख दूं कि ‘तुम’ कह सकते हो...किन्तु मैं ने यह ‘आप’ की दीवार बनी रहने दी .यों अपने लिए आप कहलवाना मेरा शौक नहीं है .ऐसा भी नहीं कि मुझ में अहम् है इसलिए आप कहलाना मुझे पसंद है .असल में ‘तुम’ से जिस अपनत्व या निकटता का अहसास होता है वह अधिकार मैं इस युवक मित्र को नहीं दे पा रही थी .तभी मैंने देखा था कि पत्रों में उस ने मुझ अनदेखी लड़की का नाम नूतन ‘एन‘  रूप में अपने नाम के मध्य संयुक्त कर लिया था ,मैं ने इसकी भी उपेक्षा की .एक अनजान ,अनदेखी लड़की जो कुरूप ,भद्दी कुछ भी हो सकती है ,उसके प्रति आसक्ति ...नाम की संयुक्तता भावुकता ही तो है .
    कई बार किये गए चित्र के आग्रह को भी मैं टाल गई थी किन्तु उसे देखने की लालसा तीव्र होने लगी थी . ऐसे ही एक समय में उसका पत्र आया था .उसने लिखा था ‘मेरा ट्रांसफर हो गया है ...वहां जाते समय आपका स्टेशन भी रास्ते में पड़ेगा’ शायद उसकी इच्छा रही थी कि मैं आने का आग्रह करूं .मैं ने भी पत्र लिख दिया था .
    जब वह आया तो दरवाजा माँ ने खोला था .दूसरे कमरे में से ही मैं ने उसे अपना परिचय देते सुना था –‘मुझे सुनील सिन्हा कहते हैं ’
    सुनील नाम सुन कर मैं चौंकी थी .वह तो दो दिन पहले आने वाला था ...आज तो मैं मिलने को तनिक भी तैयार नहीं थी .सुबह का समय था ...नहाई भी नहीं थी .पिछले दिन के पहने हुए कपड़े भी कहाँ साफ़ रह गए थे .उस पर भी  अस्त व्यस्त,उलझी हुई केश राशि . इच्छा हुई सामने जाने से पहले कपड़े बदल कर बाल जरा ठीक कर लूं .पर स्वयं को संभालने में सकोच सा हुआ कि माँ क्या सोचेंगी . बस फिर एक नजर शीशे पर डाल कर मिलने चली गई थी.
   ‘अच्छा तो आप हैं सुनील ? नूतन दीदी आपकी बहुत चर्चा करती हैं ...अफ़सोस है कि वह इस समय घर पर नहीं हैं ...शाम तक आजाएँगी .अरे आप उदास क्यों हो गए ?...हम लोग तो हैं न ...अच्छा पहले यह बताएं कि आप क्या पीयेंगे...ठंडा या गरम ?’
     बस यही ऑपचारिक बातें होती रहीं .वह कुछ उदास प्रतीत हो रहा था क्यों कि दो घंटे बाद उसे ट्रेन पकड़नी थी .तभी पापा आगये –‘अरे यह क्या नूतन ...इन्हें कुछ खिलाएगी –पिलाएगी भी या यों ही बैठाये रहेगी ?’
   तब तो वह चोंक कर देखता ही रहा गया था जैसे कह रहा हो ‘शैतान लड़की    खूब उल्लू बनाया हमें .                                 
    दो घंटे ठहर कर वह चला गया था .
    कैसी विडम्बना है कि आज चाह कर भी उसका चेहरा आँखों के सामने नहीं ला पा रही,कोई आकृति ही नहीं उभरती .मैं खीज जाती हूँ ,तब उसे ध्यान से क्यों नहीं देखा ? नजरें उठाने में ही लगता था अभी चोरी पकड़ी जायेगी .फिर भी हल्का सा अहसास है कि देखने में बहुत खूबसूरत तो नहीं पर अच्छा ही था .जाने के बाद उसके पत्र की प्रतीक्षा थी ...जानने की उत्सुकता थी कि मेरा उस पर क्या प्रभाव पड़ा... कहीं अपने नाम के साथ ‘एन ‘ की संयुक्तता पर वह पछताया तो नहीं ?
     कुछ दिन बाद ही उसका पत्र आया था .पूर्व की भांति सुनील एन सिन्हा नाम सुन्दर अक्षरों में चमक रहा था .एक क्षण को तो मैं रोमांचित हो उठी थी . उसने लिखा था ‘दैविक संयोग ...आप से मुलाकात .आप का परिचय ,आप का स्वभाव ,आप का आग्रह ,प्यारा सा परिवेश ,सभी कुछ मेरी जिंदगी के प्रिय अहसास हैं .मुझे उन क्षणों की स्मृति है और रहेगी .नहीं भूलूंगा आपके सरल और प्रिय व्यक्तित्व को .पता नहीं आप मेरे लिए कैसा महसूस कराती हैं ? स्पष्ट लिखेंगी न ? 
     जवाब में मैंने अब तक अनकहा बहुत कुछ लिखना चाहा था किन्तु न लिख सकी.मन ने कहा ...पगली कहाँ भटक रही है तू ...इस की परिणति विवाह में असंभव है ,अतः संबंधों को मैत्री तक ही सीमित रख .फिर जवाब में उसके सभी प्रश्नों के उत्तर मैं उड़ा गई थी और जवाब में लिख भेजा था एक ओपचारिक सा पत्र .
      फिर एक अन्य पत्र में उसने लिखा था – ‘यहाँ परिवार वालों द्वारा मेरे जीवन में परिवर्तन का प्रयास हर तरफ से जारी हैं किन्तु मेरी उसमे कहीं कोई रूचि नहीं है .अब तक मैं ने जीवन में जिनको अधिक चाहा है उन्ही से मुझे सब से अधिक निराशा मिली है .अब मैं भी संस्कारों की प्रबलता को स्वीकारने लगा हूँ .आखिर आप जवाब क्यों नहीं देतीं ? कहीं हम सरे राह चलते मिल जाने वाले परिचित नए संबंधों की रचनात्मक नीव में रखे जाने वाले पत्थरों की तरह पीछे तो नहीं छूटते जा रहे ’ पत्र के अंत में सारी व्याकुलता तथा भाव स्पष्ट करने के लिए या निकटता का आभास देने के लिए उसने ‘आपका’ की जगह ‘तुम्हारा अपना ही सुनील’ लिखा था .
   कई दिन तक मुझे ‘तुम्हारा अपना ही ’ शब्द भेदते रहे थे .इच्छा हुई थी पत्र का जवाब ही न दूं .फिर भी न जाने क्यों पत्रोत्तर दिया था, सदा की तरह सीधा, सपाट,संक्षिप्त ,तटस्थ सा .और मेरे उसी पत्र का  प्रत्युत्तर है आज का खीज भरा पत्र जिसमे उसने अधूरा उत्तर देने की शिकायत की है.
     यों आज इच्छा होने लगी है कि उसकी आकांक्षाओं को पूर्ण कर दूं किन्तु जानती हूँ कि इसे पापा किसी दशा में स्वीकार नहीं करेंगे ...और मैं उनका विरोध नहीं कर पाऊंगी .आखिर मैंने उसे पत्र लिख दिया –‘आप को मुझ से पत्रों का अधूरा उत्तर देने की शिकायत है न ? मैं इस आक्षेप का विरोध नहीं करती क्यों कि आपने सही लिखा है .पर उत्तर दूं भी तो क्या ?...पापा का संस्कारी या कहूं तो रूढ़िवादी मन इस विवाह की स्वीकृति नहीं देगा ...शायद यही हमारी नियति है.सोचती हूँ आगे से आपको पत्रोत्तर भी न दूं ...यह अध्याय यहीं समाप्त हो जाये तो अच्छा है . 
       आज फिर वही प्रसंग ...मैं पापा के शब्द सहन नहीं कर पाती ,यों मैं जानती हूँ कि वह मुझे बहुत प्यार करते हैं .उन्होंने पुत्र के अभाव में हम तीनों बहनों को बेटों की तरह पाला है .कभी मेरी आकांक्षाओं की पूर्ति में बाधक नहीं बने .जहाँ तक मैं ने चाहा लोगों के मना करने पर भी उन्हों ने मुझे पढ़ाया ...अपने छोटे से कस्बे में सुविधा न होने पर बाहर होस्टल में रख कर भी पढाया है किन्तु अब वह जाति बिरादरी के वाग्वाणों से आहत हो गए हैं .किसी ने फिर टोक दिया होगा ....इसी पर पापा माँ से कह रहे थे – ‘सुनते सुनते मेरे कान पक गए हैं कि लड़की बड़ी हो गई है ,उस की शादी क्यों नहीं करते ? ’
    मन करता है यह जगह छोड़ जाऊं .इस नौकरी में गुजारा मुश्किल हो रहा है...दहेज़ के लिए धन कहाँ से लाऊं ? काश नूतन की जगह बेटा होता .कुछ तो मुझे सहारा मिलता ,...आज ही प्रोविडेंट फण्ड से दस हजार उधार लेने की अर्जी दी है ...इस से अधिक मिल भी नहीं सकते ...सोचता हूँ इस मकान को बेच दूं ...किराये के मकान में रह लेंगे पर किसी तरह जल्दी से नूतन के हाथ पीले कर देने हैं ’
   मैं विचारों के बवंडर में घिर जाती हूँ .पापा के पास बुढ़ापे के लिए क्या है ... सिवाय प्रोविडेंट फण्ड से मिलने वाली लघु धन राशि और दो कमरों के एक छोटे से मकान के ? उस पर भी दो छोटी बहनों की शिक्षा दीक्षा और उनकी शादी अभी बाकी है .यदि पापा यह सब मुझे दे देंगे तो उनके पास बाकी क्या बचेगा ?... उनका कैसे गुजारा होगा ? नहीं नहीं पापा को यों बरबाद नहीं होने दूँगी .पर यह भी समझ में नहीं आता कि करूं क्या ?  नौकरी करना चाहती हूँ पर मुझे अकेले पापा कहीं दूसरी जगह भेजना नहीं चाहते ...अब समय आगया है कि पापा से खुल कर बात करनी ही होगी .
   ‘अरे सुनो नूतन की माँ ,आज उस सुनील सिन्हा का पत्र आया है ,जो एक बार अपने घर आया था .नूतन का हाथ माँगा है ,दूसरी जाति में विवाह कैसे कर दूं ? जाति वाले कच्चा खा जाएंगे.जब तक कहीं नूतन का विवाह नहीं हो जाता सुख से सो भी नहीं सकूंगा ... मेरे रातों की नींद हराम हो गई है ...बोझ बन गई है नूतन ’
    मस्तिष्क के तार झनझना उठते हैं .घिसे रिकार्ड पर सुई की भांति मन फिर फिर उसी कथन पर आ कर अटक जाता है ‘बोझ बन गई है... नूतन बोझ बन गई है’ मन करता है कहीं जा कर डूब मरुँ .स्वाभिमानी मन आहत हो विद्रोह कर बैठता है ...जबान खुल जाती है .
  ‘ पापा आप परेशान न हों ...सुख की नींद सोयें .लड़का आप को घर बैठे मिल गया है –‘सुनील सिन्हा ’ ...अब आपको किसी का मुंह नहीं भरना पड़ेगा ’
 पापा फुफकार उठते हैं –‘क्या कहा सुनील सिन्हा ?...अच्छा तो वह सब तेरी ही साजिश थी .तभी उस छोकरे की हिम्मत मुझे पत्र लिखने की हो गई .ब्राह्मण की लड़की का विवाह ...कायस्थ के लडके से ?...नहीं यह नहीं हो सकता . पढ़ लिख कर तो तेरी बुद्धि भी भ्रष्ट हो गई है.’
  ‘यह कैसी विडम्बना है पापा...एक तरफ तो मैं बोझ हूँ ...दूसरी तरफ आप उसे हल्का भी नहीं करना चाहते .पापा इस जाति से इतना मोह क्यों ? यह कैसी  जाति है जिस के लोग  बिना लम्बी चौड़ी मांग के शादी की बात आगे बढ़ाना भी पसंद नहीं करते ? प्लीज पापा अपना द्रष्टिकोण विकसित कीजिये....जो विवाह के नाम पर आदमी को बेच खाने को तैयार हैं ,उन्हें आप जाति भाई कहते हैं ?...मैं आप पर अब और बोझ बनना नहीं चाहती...अपने लिए आप को बरबाद होते ,लुटते नहीं देख सकती.अब मैं अपने निश्चय पर दृढ हूँ ... मेरा विवाह अब  सुनील से ही होगा ...वैसे यह अब आप पर निर्भर करता है कि यह आप द्वारा संपन्न होता है या .....’
    मैं प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किये बिना उस कमरे से बाहर निकल आती हूँ ...जानती हूँ मेरे इतना बोल जाने के साहस को देख कर मेरी उच्च शिक्षा को कोसा जा रहा होगा ...लड़कियों को अधिक न पढ़ाने के निर्णय को दोहराया जा रहा होगा
 
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