मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

यह सब किस लिए



 कहानी  

              यह सब किस लिए

                                                         पवित्रा अग्रवाल

        मैं कोई फिल्मी धुन गुनगुनाता हुआ ऑफिस जाने को तैयार हो रहा था तभी मेरी पत्नी मीता कमरे में आई और मुझसे बोली, "सुनो मुझे तो पिछले वर्ष याद ही नहीं रहा लेकिन इस वर्ष मैं मम्मी जी का श्राद्ध अवश्य करूँगी।'
        "अभी तो श्राद्धों के दिन बहुत दूर हैं.....तुम्हें अचानक मम्मी जी की याद कैसे आ गई ?'
       "अगले महीने मार्च में मम्मी की पुण्यतिथि है न । यह ध्यान आते ही मेरे मन में उनका श्राद्ध करने की इच्छा  पैदा हुई।...असल में पिछले वर्ष किटी पार्टी में सबने मुझे टोका था कि तुम अपनी सास का पहला श्राद्ध करना कैसे भूल गई ?...यह भी कोई भूलने की बात है ? मुझे बहुत शर्मिंदा होना पड़ा था, लेकिन इस वर्ष मैं खूब जोर-शोर से उनका श्राद्ध करूँगी। श्राद्ध में सब पकवान मम्मी जी की पसंद के बनवाऊँगी।....उन्हें गुलाब जामुन और काजू की बर्फी बहुत पसंद थीं, वही बनवाऊँगी । किसी वृद्ध  ब्राह्मणी को मम्मी जी के नाम से पाँच कपड़े, साड़ी, ब्लाउज, पेटीकोट, ओढ़ने-बिछाने की चादर भी दान करने होंगे।....कुछ बर्तन भी देने होंगे।'
         मीता अपनी धुन में बोले जा रही थी । मैं मन-ही-मन बड़बड़ाया कि जीवित रहते तो कभी माँ की पसंद-नापसंद का ध्यान नहीं रखा, कभी उनकी मिठाई खाने की इच्छा होती थी तो अपने कमरे में आकर बड़बड़ाती थी कि वे बुढ़ापे में ज्यादा  चटोरी हो गई हैं, रोटी तो उन्हें अच्छी ही नहीं लगती और अब उनके मरने के बाद अपनी सहेलियों को दिखाने के लिए उनका श्राद्ध कराना चाहती है।
     "हैलो, पति देव आप कहाँ खोए हुए हैं ? इतनी देर से मैं से कुछ कह रही हूँ।...लगता है आपने कुछ सुना ही नहीं।'
      "देवी जी, तुमने जो कुछ कहा मैंने सब सुन लिया है। मुझे ऑफिस के लिए तैयार होना है। अभी तो न मैंने शेव बनाई है और न नहाया हूँ।...इस विषय में हम बाद में भी बात कर सकते हैं।' ये कह कर मैं स्नानघर में घुस गया था। इस तरह मीता से तो पीछा छूट गया किंतु माँ से जुड़ी स्मृतियों की झील में हलचल मच गई थी। माँ बहुत शांत स्वभाव की थीं। मैंने उन्हें कभी किसी से लड़ते-झगड़ते, ताने देते नहीं देखा और न मैंने उन्हें कभी किसी की बुराई करते सुना था। पापा से भी कभी उन्हें झगड़ते नहीं देखा। कभी पापा कुछ कह भी देते थे तो एकाएक उदास होकर उनके सामने से हट जाती थीं। बात बढ़ने की नौबत ही नहीं आने देती थीं।
          दादी बनने की आस लिए अचानक वह दुनिया से चली गई। होली जलने की रात को अचानक पड़ोसी शर्मा जी ने हमें जगाया था। उनकी पत्नी के प्रथम संतान होने वाली थी। वह प्रसव पीड़ा से बेहाल थी और घर में कोई अन्य महिला नहीं थी। उनकी मां दो दिन बाद गांव से आने वाली थीं। उनके आग्रह से पूर्व ही मां उनके साथ अस्पताल जाने को तैयार हो गई थीं।
         मैं सुबह जल्दी तैयार होकर चाय-नाश्ते के साथ अस्पताल पहुँच गया था ताकि यदि मम्मी घर आना चाहें तो रंग खिलना शुरू होने से पहले ही उन्हें घर ला सकूँ। शर्मा जी के बेटा हुआ था। उन्होंने कहा था, "माँ रात भर नहीं सोई हैं। उन्हें घर ले जाओ, नहा-धोकर, आराम करने के बाद उन्हें शाम यहाँ छोड़ जाना। तब तक होली का हुड़दंग भी समाप्त हो चुकेगा।'
         मैं माँ को स्कूटर पर बैठा कर लौट रहा था तभी कहीं से एक रंग भरा गुब्बारा मेरे मुँह पर आकर लगा। स्कूटर का संतुलन बिगड़ गया। मैं व माँ दोनों ही नीचे गिर गए थे। मुझे तो खास चोट नहीं आई किंतु माँ बेहोश हो गई थीं। होली के दो दिन बाद बेहोशी की अवस्था में ही वह हमें छोड़ कर इस दुनिया से चली गई थीं।...वह पास-पड़ोस में किसी के भी गर्भवती होने की बात सुनती थीं तो इतनी खुश हो जाती थीं, जैसे वह स्वयं दादी बनने वाली हैं।
        उन्हें मालूम था कि मीता में कुछ कमी है इस वजह से वह माँ नहीं बन पा रही...फिर भी वह मीता को उदास देखकर यही कहती थीं, "अरे तू परेशान क्यों होती है। इलाज तो चल ही रहा है।...इसमें कंजूसी नहीं करना।...किस्मत में होगा तो फल जरूर मिलेगा।...वरना अनाथालय से एक बच्चा गोद ले लेना।'
          मीता कहती- "मम्मी हम दोनों की जन्मपत्री में संतान का योग है, आप दादी जरूर बनेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है।' ये बातें याद करके माँ के प्रति श्रद्धा से सिर झुक जाता है।अन्य सासों से वह कितनी अलग थीं।
         "बाथरूम में सो गए क्या ? इतनी देर में तुम्हारा नहाना नहीं हुआ ?...अब ऑफिस में देर नहीं हो रही ?'
        मीता की आवाज़ से मेरा ध्यान भंग हुआ। जल्दी से तैयार होकर नाश्ता किया और स्कूटर लेकर घर से निकल पड़ा।
       माँ स्मृति पर कुछ इस तरह छा गई थीं कि चाह कर भी उनकी स्मृति को झटक       नहीं पा रहा था। एक बार माँ की छाती में बांयी तरफ बहुत तेज दर्द उठा था। मैं तो इतना घबरा गया था कि उन्हें लेकर सीधे अपोलो अस्पताल पहुँच गया। वह मेरे घर के निकट था। डॉक्टर ने हार्ट के लिए ई.सी.जी, टूडी ईको, एक्सरे और कई तरह के ब्लड टेस्ट आदि कराने को कहा।चार-पाँच हजार का बिल बन गया था, लेकिन यह जानकर संतोष हुआ था कि उन्हें कोई गंभीर बीमारी नहीं है।
           बिल देख कर मीता ने कहा था, "आप भी जरा से दर्द से घबरा कर सीधे अपोलो पहुँच गए। डाक्टर्स की जेब से क्या जाता है ? व्यर्थ ही इतने सारे टेस्ट करा लिए। अपने ऑफिस की डिस्पेंसरी भी तो ले जा सकते थे। वहाँ भी योग्य डाक्टर्स की कमी नहीं है।'
         वैसे मीता ने कुछ गलत नहीं कहा था किंतु मैं भड़क गया था- "मीता, माँ पर चार -पाँच हजार  रुपये खर्च हो गए तो तुम्हें बुरा लग रहा है। तुम्हारे इलाज में भी मैं पचास - साठ  हजार रुपये खर्च कर चुका हूँ फिर भी कोई फायदा नहीं हुआ। एक बेटी भी हो जाती तो कोई अफसोस नहीं होता।...तुम मेरी पत्नी हो तो वह भी मेरी माँ हैं। तुम क्या चाहती हो ?...मैं माँ-बाप के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लूँ ?...तुम भाग्यशाली हो जो तुम्हें इतनी अच्छी सास मिली हैं। वरना निस्संतान बहुओं को ससुराल में कितने ताने सुनने पड़ते हैं, क्या तुम नहीं जानती ?...किंतु यहाँ किसी ने तुम्हारा दिल नहीं दुखाया। मेरे दोस्त की माँ तो उसके पीछे पड़ी हैं कि दूसरी शादी कर ले।'
         "मम्मी जी ने भले ही कभी ताना न दिया हो किंतु उस कमी को तुम पूरा कर देते हो।...अभी तुमने जो कुछ कहा क्या वह ताना नहीं है ?...छोड़ दो मुझे। तुम भी दूसरी शादी कर लो।' कहकर उसकी आँखें सावन- भादो की तरह बरसने लगी थीं।
       मुझे भी अपनी गलती का अहसास हुआ था। यदि मीता माँ नहीं बन पाई तो इसमें उसका दोष कहाँ है ? मैंने उसे समझाते हुए कहा था - "मीता मेरा मतलब तुम्हारा दिल दुखाना नहीं था।...दूसरी शादी का तो सवाल ही नहीं उठता। अभी हम फिर इलाज प्रारंभ कराएँगे। फिर भी सफलता नहीं मिली तो एक बच्चा गोद ले लेंगे। बस तुम मुझे माँ के खिलाफ भड़काया मत करो।'
       "मैंने तो एक साधारण-सी बात कही थी कि अपनी डिस्पेंसरी में दिखाने से ये सारे टैस्ट मुफ्त हो जाते। आजकल तो तुम मेरी हर बात का उल्टा अर्थ निकालने लगे हो।'
       अब माँ नहीं हैं तो पिता जी के लिए कुछ-न-कुछ कहती रहती है। पहले पिताजी ड्राइंग रूम में टी.वी. देखते थे तो उसे शिकायत थी कि वह अपनी पसंद के प्रोग्राम नहीं देख पाती। फिर मैंने पिताजी को एक पोर्टेबल टी.वी. उनके कमरे के लिए अलग ला दिया तब भी चैन नहीं है। कहती हैं तीन लोगों में दो टी.वी. की क्या जरूरत है ? लाइट का बिल ज्यादा आता है। आखिर उसे कहीं तो समझौता करना पड़ेगा।
        पहले जब पिताजी कहीं नहीं जाते थे तो कहती थी- "वो पूरे दिन घर में ही पड़े रहते हैं।" जैसे-तैसे उन्हें समझा कर सुबह सैर पर जाने की आदत डाली है तो अब कहती हैं कि रोज सुबह इतनी देर के लिए सैर पर चले जाते हैं, क्या सुबह अपने सामने कढ़वा कर भैंस का दूध नहीं ला सकते ? रोज पैकेट के दूध की बेस्वाद चाय पीनी पड़ती है।'
         मुझे भी गुस्सा आ गया था, "तुम अकेली नहीं हो, हजारों लोग पैकेट का दूध पी रहे हैं। भैंस के दूध का ज्यादा ही शौक है तो जाकर स्वयं ले आया करो, पड़ोस में ही तो मिलता है।' तभी सैर से पिताजी आ गए थे।
       "क्यों सुबह-सुबह मीता पर बरस रहा है ? हम दो आदमियों के घर में रहते दूध लेने वह जाएगी ?.. .मीता दूध के लिए डिब्बा निकाल कर रख दो। कल से सैर से लौटते समय मैं ले आया करूँगा।
 वैसे भी कोई छोटा-मोटा काम हो तो तुम मुझसे कह दिया करो। खाली ही तो बैठा रहता हूँ, मेराभी टाईमपास हो जाएगा।' तब से दूध पिताजी  लाते हैं। यही सब सोचते-सोचते ऑफिस पहुँच गया। चौकीदार के सलाम से मेरा ध्यान भंग हो गया।
 ऑफिस में काम की अधिकता से कुछ सोचने का समय नहीं मिला। घर लौट कर चाय पी। टी.वी. देखा और खाना खाकर अपने बिस्तर पर चला गया। अपना काम समाप्त करके आते ही पत्नी ने फिर वही प्रसंग छेड़ दिया।
  "हाँ तो तुमने क्या सोचा ?'
 "किस विषय में?'
 "अरे वही, माँ के श्राद्ध के विषय में ।'
        कहना तो बहुत कुछ चाहता था किंतु व्यर्थ की कलह व तनाव से बचने के लिए बस इतना ही कहा, "फालतू आडंबरों के लिए मेरे पास पैसा नहीं है।'
 "अरे मैं तुम्हारी माँ का श्राद्ध करने के लिए कह रही हूँ, अपनी माँ का नहीं।...'
 "हाँ मैं अपनी माँ के श्राद्ध के लिए ही मना कर रहा हूँ।...इन दिखावों में मेरी तनिक भी आस्था नहीं है।'
        वह बच्चों की तरह ठुनकी थी - "क्या हो तुम भी।...तुम्हें तो किसी में भी आस्था नहीं है। समाज में रह कर बहुत से काम दिखावे के लिए भी करने पड़ते हैं। मेरे क्लब की सभी महिलाएँ अपने बुजुर्गों का श्राद्ध बहुत जोर-शोर से करती है। तुम कुछ भी कहो मैं तो उनका श्राद्ध करूँगी वरना सब मेरे बारे में क्या सोचेंगी।'
       मैं कटु हो आया था  --"तो देवी जी माँ का श्राद्ध श्रद्धावश नहीं, अपनी सहेलियों को दिखाने के लिए करना चाहती हैं। जीवित रहते तो वे तुम्हारे तनाव का कारण ही बनी रहीं। कभी तुम से सम्मान और श्रद्धा नहीं पा सकी और अब.....
        "अब बस करो । पुरानी बातों को रिपीट करने की जरूरत नहीं है। मम्मी जी का श्राद्ध करने की एक चाह तुम्हें क्या बता दी, तुम्हें तो मुझे बातें सुनाने का मौका मिल गया। वाकई मैं बहुत बुरी हूँ, तुम्हारी माँ को एक पल चैन से नहीं जीने दिया। अब तुम्हारे पिताजी को भी तंग करती हूँ। न तुम्हें पिता बना पाई,न उन्हे दादा -दादी ...  ...तुम्हारे तानों से तंग आ गई हूँ। माँ बनने को मैं भी कितना तडपती हूँ यह तुम्हें नहीं मालूम। अपना दुख किससे कहूं ? यहाँ मेरा है ही कौन...?' उसका चेहरा आँसुओं से भीग गया था।
        मैं स्तंभित रह गया। मैं उसे इस तरह रुलाना नहीं चाहता था। सच कहूँ तो मीता बुरी है भी नहीं। मम्मी व पिताजी दोनों ही उससे खुश रहे हैं । मुझे ही जाने क्या हो गया है कि उसके दोष ढूँढ़ता रहता हूँ। वह सही कहती हैं कि "ये हमारे असंतोष हैं, जो खीज के रूप में प्रगट होते हैं।'.
 ..लेकिन ऐसे तो जीना मुश्किल हो जाएगा। हमारी जिंदगी में एक ही अभाव है, संतान का। वही चाह शायद असंतोष का कारण बन रही है। मैंने मन-ही-मन निश्चय कर लिया कि अब इलाज में और समय बरबाद नहीं करेंगे। कल ही अनाथाश्रम जाएँगे और लड़का या लड़की जो आसानी से व जल्दी मिल जाएगा, उसे अपने बच्चे के रूप में अपना लेंगे।
 मैं मीता को मनाने के मूड में आ गया था। कान पकड़ने की एÏक्टग करते हुए बोला, "देवी जी मुझे माफ कर दो । देखो मैंने कान भी पकड़ लिए हैं, तुम कहो तो उठक-बैठक भी लगाने को तैयार हूँ।'
        एक नजर मुझ पर डाल कर वह रोते-रोते हंस पड़ी।
      "अब मुझे माफ कर दिया हो तो एक बात कहूँ ? देखो हमारे घर में श्राद्ध की परंपरा नहीं रही है, तुम यह सब किस लिए करना चाहती हो ? लोगों को दिखाने के लिए नई परंपरा मत डालो। तुम्हें कुछ करना ही है तो बस एक काम करो पिताजी माँ के बिना बहुत अकेले और उदास रहने लगे हैं, हम उन्हें इतनी श्रद्धा व सम्मान दें कि वह अपनी बची हुई जिंदगी हँसी-खुशी से गुजार सकें।यदि सचमुच कोई दूसरा लोक है तो वहाँ से पिताजी को खुश देख कर माँ भी बहुत खुश होंगी और यही माँ का असली श्राद्ध होगा।'
 मीता की आँखों से बाढ़ का पानी बह चुका था। उसे सहजता की ओर लौटते देख मुझे अच्छा लगा। मैंने कहा, "मीता यदि अब मुझ से नाराज नहीं हो तो अपने हाथ की एक कप काफी पिला दो।'
  "काफी तो पिताजी को भी बहुत पसंद है, तुम चल कर उनके कमरे में बैठ कर टी.वी. देखो, मैं काफी लेकर वहीं आती हूँ।'
 
                   
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