शनिवार, 8 नवंबर 2014

पुराना प्रेमी

कहानी                          पुराना प्रेमी                                                              
                                                                      
                                                                                  पवित्रा अग्रवाल 
 
       निर्मला के सभी पत्र हमेशा मेरे ऑफिस के पते पर आते रहे किंतु कभी भी मेरी इच्छा उसके किसी पत्र को खोल कर पढ़ने की नहीं हुई। परंतु उस दिन की डाक से रिडायरेक्ट होकर आया वह गुलाबी लिफाफा पता नहीं क्यों मुझे बार-बार अपनी तरफ आकर्षित कर रहा था। जेब में रख कर मैंने उसकी तरफ से ध्यान हटाने की बहुत कोशिश की किंतु उत्सुकता बढ़ती ही गई। आखिर मैं स्वयं को रोक न पाया। बड़ी सावधानी से लिफाफा खोला ताकि पत्र को पढ़ कर फिर से उसे बंद कर सकूँ और उसके खोले जाने का निर्मला को शक भी न हो। पत्र में लिखा था- 

 प्रिय निर्मला,
         तुम तो मेरे दिल की धड़कन हो। बहुत दिनों से बीमार चल रहा हूँ, पर डाक्टर मेरी बीमारी नहीं पकड़ पाते। बीमारी तो मेरे मन की है, डाक्टर भला कैसे जानेंगे ?तुम्हारी बेरुखी ही मेरी लाचारी है। अपने सात-आठ पत्रों का तुम से कोई जवाब न पाकर मैं बहुत निराश हो चुका था। इसलिए तुम्हें भूलने की कोशिश में लगा रहा। इसी प्रयास में दो वर्ष गुजार दिए। इस बीच मैंने तुम्हें एक भी पत्र नहीं लिखा। मुझे विश्वास  हो चला था कि तुम्हें भूल गया हूँ किंतु वह मेरा भ्रम था। कल किसी काम से अलमारी खोली तो अचानक तुम्हारे पत्रों का पुलिंदा नीचे गिर गया और तुम्हारी याद फिर से ताजा हो गई।
            तुम्हारी बेरुखी को देख कर नहीं लगता कि वे पत्र कभी तुमने लिखे थे। तुम तो बहुत संवेदनशील लेखिका हो...तुम इतनी पत्थर दिल कैसे बन गई ? काश, मैं भी तुम्हारी तरह कठोर बन पाता। माना कि मुझ से गलती हुई थी, पर उसके लिए तुमसे कितनी बार क्षमायाचना कर चुका हूँ। आज आवेश में आकर तुम्हारे सभी पत्र जला डाले। अब पछता रहा हूँ कि वही तो मेरे जीवन का सहारा थे।
            लगभग दो वर्ष से तुम्हारा कोई समाचार नहीं है। पता नहीं तुम वहीं हो या तुम्हारा पता बदल गया है। हो सकता है इस बीच तुम्हें कोई मनमीत मिल गया हो और तुमने विवाह कर लिया हो...मेरे घर वाले मेरी शादी के पीछे पड़े हैं। उन्हें स्वीकृति देने से पहले मेरी तरफ से यह अंतिम प्रयास है...इस बार भी असफल रहा तो अपने सूनेपन को भरने का प्रयास करूँगा...यदि यह पत्र तुम्हें मिल जाए तो कुछ लाइनें जरूर लिख देना।
   
                                                                                     तुम्हारा,
                                                                                                      आकाश.
 
       पत्र पढ़ कर मैं हैरान रह गया कि निर्मला यानी मेरी पत्नी देखने में कितनी भोली-भाली लगती है। यह तो छुपी रुस्तम निकली। कौन है यह आकाश ? निर्मला का कोई पुराना प्रेमी लगता है। उसने अपनी किस गलती की चर्चा की है ? ऐसा क्या हो गया था कि आकाश के बार-बार माफी माँगने पर भी निर्मला ने उसे माफ नहीं किया और न ही उसके सात-आठ पत्रों का उत्तर दिया...पता नहीं उनके संबंध कहां तक पहुँचे थे ? दोनों के बीच कुछ तो रहा ही होगा...तो क्या उसने मुझसे छल किया है ?
             निर्मला से मेरी शादी हुए दो वर्ष हो चुके हैं। शादी से पहले मन में अनेक शंकाएं थीं कि पता नहीं पत्नी कैसी मिलेगी ? उससे मेरी पटेगी भी या नहीं, कहीं झगड़ालू आदत की न हो। यदि नहीं पटी तो जीवन बोझ बन जाएगा। इसलिए जब हमारे एक परिचित मेरे लिए निर्मला का रिश्ता लेकर आए थे तो मैं सावधान हो गया था। मुझे उन से ही पता चला था कि वह कहानियाँ व कविताएं लिखती है और अनेक पत्रिकाओं में छप भी चुकी है। मैंने अपने उन परिचित से कहकर निर्मला की कुछ कहानियाँ व लेखो की प्रतिलिपियाँ मँगवा लीं। पढ़ कर उसके विचारों, उसके जीवन दर्शन, समाज व समस्याओं के प्रति उसके सुलझे हुए सोच से मैंने महसूस किया कि वह सरल व सहज व्यक्तित्व की होगी।
        निर्मला से मिलने के बाद उसके प्रति मेरे मन में बनी छवि और भी पुष्ट हुई। हम दोनों में आपस में जीवन व समाज के अलग-अलग विषयों पर चर्चा हुई फिर हमने एक-दूसरे को पसंद कर घर वालों को अपनी स्वीकृति दे दी।
       इन दो वर्षों के साथ में कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं कहां फंस गया हूँ। जीवन शांत व स्थिर गति से बीत रहा है किंतु यह पत्र पढ़ कर दिमाग में अजीब सी हलचल मच गई है। निर्मला पर मुझे शक होने लगा है। बातें तो वह ऐसी करती है कि आदमी प्रभावित हुए बिना न रहे। एक बार कह रही थी -"नाम का जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। मैंने तो तन-मन से अपने नाम के अनुरूप बने रहने का प्रयास किया है।'जीवन में चारित्रिक श्रेष्ठता की खास कायल लगती है।
          एक बार भूल से मैंने अपने कॉलेज जीवन के एक प्रेम प्रसंग की चर्चा उसके सामने कर दी तो वह उखड़ गई। बड़ी मुश्किल से समझा पाया। पूछने पर उसने बताया कि "प्रेम को मैं बुरा नहीं मानती किंतु उसे फैशन या शौक नहीं समझना चाहिए। सच्चा प्रेम हमेशा पवित्र होता है। उसे निभाना चाहिए। प्रेम में शादी से पहले शारीरिक संबंध उस प्रेम को कलंकित करते हैं।'
         मैं सोच में पड़ गया कि यदि उसे आकाश से प्रेम था तो उसने निभाया क्यों नहीं ? उनकी शादी क्यों नहीं हुई ? कहीं ऐसा तो नहीं कि आकाश ने उस प्रेम को कलंकित कर दिया हो इसलिए नाराज होकर निर्मला उससे दूर चली गई ?
         बातों के दौरान एक बार उसने कहा था कि हमारी शादी भले ही अरेंज है किंतु मेरा प्यार जिस्मानी नहीं है...तुम पास रहो या दूर किंतु मुझे दुनिया का कोई भी प्रलोभन आकर्षित नहीं कर सकता। जीवनसाथी से एकनिष्ठता का मेरा व्रत है और चाहूँगी कि मेरा साथी भी ऐसा ही हो। इन दो वर्षों के साथ में मैंने उसे वैसा ही पाया है जैसा वह दावा करती है। आत्मसंयमी, मितभाषी, सरल, सहज, स्नेही...फिर यह पत्र ?... लगता है किसी ने जानबूझ कर हमारे शांत जीवन में हलचल मचाने का प्रयास किया है...किसी ने पुरानी दुश्मनी निकाली है।
          अब शक का अंकुर फूट चुका था। कहीं मन से एक आवाज यह भी आई कि यदि शादी से पहले उसका कोई प्रेम-प्रसंग रहा भी है तो तू ही कौन सा दूध का धुला है। शादी से पहले तेरे भी कई प्रेम-प्रसंग रहे हैं। यदि निर्मला को उनका पता चल जाए तो पता नहीं वह तुझे इतना प्यार करे या नहीं। हो सकता है छोड़ कर ही चली जाए, क्योंकि उसने एक बार कहा भी था कि कोई तुम्हारा प्रेम-प्रसंग रहा भी हो तो मुझे कभी बताना नहीं। अब तू उसके एक प्रेम-प्रसंग के खयाल से जल-भुन कर खाक हुआ जा रहा है...सच में पुरुष बहुत छोटे दिल का होता है। खुद कितना भी दिलफेंक रहा हो किंतु पत्नी सती-सावित्री ही चाहिए...यदि निर्मला के नाम आए इस पत्र में कुछ सच्चाई है तो मेरा उसके साथ सहज जिंदगी जीना मुश्किल हो जाएगा...मुझे तो अभी से उससे नफरत होने लगी है।
           ऑफिस में मन नहीं लगा तो आधे दिन की छुट्टी लेकर घर की तरफ चल दिया। मन में अनेक विचार आ रहे थे। सोच रहा था कि यदि निर्मला का यह कोई पुराना प्रेमी निकला तो उसको बेइज्जत कर के घर से निकाल दूँगा। उसके साथ मैं शांत व प्रेमपूर्ण जीवन नहीं जी पाऊँगा। मैं ऐसी स्त्री के साथ नहीं रह सकता जिसके जीवन में पहले से कोई प्रेमी रहा हो... अच्छा है, अभी हमारे कोई संतान नहीं है.... आसानी से अलग हुआ जा सकता है। घर जाकर पहले उसे पत्र पढ़ने को दूँगा फिर जवाब माँगूंगा। ऑफिस छोड़ने से पहले मैंने पत्र को बड़ी सफाई से चिपका दिया था।
         घर पहुँच कर मैंने दरवाजे की घंटी बजाई लेकिन काफी देर तक कोई आवाज नहीं आई। शक यकीन में बदलने लगा कि हो न हो कोई अंदर जरूर है। दरवाजा खोलने में भला इतनी देर लगती है। शादी से पहले जिसके किसी से संबंध रहे हों शादी के बाद वह कोई गुल न खिलाए, यह कैसे हो सकता है। कहीं वह यहां भी कोई गुल तो नहीं खिला रही ? मैं तो कभी टाइम से पहले ऑफिस से घर आया नहीं।..घर में एक ही दरवाजा है। यदि आज कोई घर में है तो रंगे हाथों पकड़ा जाएगा। मैंने फिर घंटी का बटन दबाया और देर तक दबाए रखा।
        "अरे कौन है, जरा भी सब्र नहीं है...बैल बजाने की भी तमीज नहीं,' कह निर्मला ने दरवाजा खोला।
      दरवाजे पर मुझे देख कर एकदम से घबरा गई -- "तुम, इस समय कैसे ?.. तबीयत तो ठीक है ?'
      "क्यों, गलत समय पर आ गया क्या ? मुझे इस समय घर नहीं आना चाहिए था ?.. किवाड़ खोलने में इतनी देर लगती है क्या ?'
      "अरे नहीं, तुम कभी इस तरह जल्दी नहीं आए थे इसलिए पूछा, कहीं तुम्हारी तबीयत तो खराब नहीं हो गई ? परेशान भी दिख रहे हो ?.. नहा रही थी, आने में थोड़ा समय तो लगेगा न ? रोज तुम्हारे ऑफिस जाने से पहले नहा लेती हूँ...आज नहीं नहा पाई थी.. सोचा महरी काम कर जाए उसके बाद नहा लूँगी वरना बीच में वह घंटी  बजा कर चली जाएगी...अभी थोड़ी देर पहले ही वह काम करके गई तो मैं नहाने चली गई।'
         निर्मला के भीगे केशों से पानी की बूंदें गिर रही थीं, गुलाबी रंग के गाउन में वह बड़ी प्यारी लग रही थी। मन हुआ अभी बाहों में भर कर उसे चूम लूँ पर तभी फिर पत्र का ध्यान आ गया। मैं पत्र उसके हाथ में थमा कर जानबूझ कर टॉयलेट चला गया। सोचा पहले उसे पत्र पढ़ लेने दूँ फिर थोड़ी देर बाद आकर पता करूँगा कि किसका पत्र है ? देखूँ क्या जवाब देती हैं सती-सावित्री जी।
           मैं बाथरूम से बाहर आया तो वह किसी सोच में डूबी हुई थी। पत्र उसके हाथ में फड़फड़ा रहा था। मैंने सोचा था कि वह पत्र पढ़ कर जल्दी से इधर-उधर छुपा देगी किंतु ऐसा नहीं हुआ था।
      "किस सोच में डूब गई ? यह किस का पत्र है ?'
       वह हँसी- "है एक पागल प्रेमी का...लो तुम भी पढ़ लो...पढ़ कर जल जाओगे।'
    मैंने उससे इस सरल व सहज व्यवहार की कल्पना नही की थी। कितनी सहजता से पुराने प्रेमी का पत्र मुझे दे रही थी। जरूर यह भी उसकी कोई चाल होगी। लेखिका तो है ही। मुझे सुनाने के लिए फौरन कोई कहानी गढ़ ली होगी।
           पत्र तो मैं पहले ही पढ़ चुका था फिर भी उससे लेकर पढ़ने का अभिनय करने लगा।
 पत्र देने के साथ वह कहने लगी -- "कैसे-कैसे लोग व चरित्र हैं समाज में...यह मेरे जीवन की एक न भुलाए जाने वाली घटना है। यह पत्र यदि किसी दूसरे के हाथ लग जाता तो न जाने मेरे बारे में क्या-क्या सोचता।'
           "कौन है यह आकाश, तुम्हें यह कैसे जानता है ?'
         "बात तीन-चार साल पुरानी है... मैं बहुत बड़ी लेखिका तो नहीं हूँ। कभी-कभी लिख लेती हूँ। थोड़ा-बहुत जो छपा है उस पर कभी-कभी पाठकीय पत्र भी आ जाते हैं। मेरी कोई रचना पढ़कर एक लड़की का पत्र आया था। उसका नाम काजल था। उसकी भी कुछ रचनाएं छपी थीं। उसने अपनी कुछ प्रकाशित रचनाएं मुझे पढ़ने के लिए भेजी थीं। उसका एक भाई था आकाश। वह भी लिखता था व कई पत्रिकाओं में छप चुका था। ऐसा काजल ने ही पत्र में लिखा था। काजल ने मुझ से पत्र-मित्रता का आग्रह किया था। उसने अपनी जो उम्र लिखी थी उस हिसाब से वह मेरी हम उम्र ही थी।... उससे पत्रों का आदान-प्रदान होने लगा....
          काजल पत्रों में मुझ से कुछ ज्यादा ही खुल गई थी। अपनी व्यक्तिगत समस्याएं मुझे लिख कर कभी-कभी मेरी राय भी माँगा करती थी। अपने पत्रों में कई बार उसने अपने प्रेमी का जिक्र भी किया था जिसके साथ वह अंतर्जातीय विवाह करने वाली थी। उसने लिखा था कि घर वाले इस विवाह के लिए तैयार नहीं हैं। वे अपनी जाति में ही विवाह करना चाहते हैं। मोटा दहेज देने की ताकत उनमें नहीं है इसीलिए वे अभी तक कोई उपयुक्त वर नहीं चुन पाए हैं। मैं भी उनकी इस तलाश से थकने व जाति  से मोहभंग होने का इंतजार कर रही हूँ...हो सकता है हार कर सहमति दे ही दें। तुम्हारे विचार से मुझे क्या करना चाहिए ?
         उसने घुमा-फिरा कर मुझ से कई बार जानने का प्रयास किया कि क्या मैं भी किसी से प्यार करती हूँ। अंतर्जातीय विवाह के विषय में मेरे क्या विचार हैं। मैं माता-पिता की पसंद की शादी करूँगी या अपनी पसंद की। एक बार उसने एक परिचर्चा के सिलसिले में मेरे विचार जानने चाहे थे। विषय था,   "सपनो के धरातल पर मेरे वो,' साथ में उसने मेरा फोटो भी माँगा था।
         "यह पत्रों का सिलसिला करीब दो साल चला। एक बार मुझे एक दिन के लिए उसके शहर जाने का मौका मिला। मैंने उसे अपने प्रोग्राम के बारे में लिख दिया। अपने ठहरने की जगह व वहां का फोन नंबर भी दे दिया। वहां पहुँच कर मुझे काजल के भाई आकाश का फोन मिला। उसने बताया था कि काजल को अचानक आवश्यक काम से बाहर जाना पड़ गया है, वह मुझ से मिलने को कह गई है। क्या में आपके पास मिलने आ सकता हूँ ?'
        -"तो ये पत्र तुम्हें उसी काजल के भाई आकाश ने लिखा है ? क्या तुम उससे मिली थीं ? उससे ऐसी क्या गलती हो गई थी जिसे तुम माफ नहीं कर पाई  और वह लगातार माफी माँगता रहा ?' मैंने बीच में ही प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
         "अभी वही सब बताने जा रही हूँ...मैंने उसे मिलने की स्वीकृति दे दी थी। वह मुझ से मिलने आया था और करीब एक घंटा मेरे साथ रहा। उसी दिन शाम को मुझे लौटना था। वह मुझे स्टेशन भी छोड़ने आया था।'
         "लौटने के पाँच-सात दिन बाद मुझे एक पत्र मिला। राइटिंग देखकर ही मैं पहचान गई कि काजल का पत्र है।काजल ने लिखा था कि मेरा भाई आकाश आपको बहुत चाहने लगा है। पहली बार उसने आपको आपके ही शहर की किसी साहित्यिक गोष्ठी में देखा व सुना था। तभी उसके मन में आपके प्रति चाह जागी थी। वह तभी आपसे मिलना चाहता था किंतु साहस नहीं जुटा सका। वह पढ़ा-लिखा युवक है तथा स्वतंत्र लेखन करता है, पत्रकारिता में भी उसकी रुचि है। अब उसे बैंक में नौकरी भी मिल गई है।... उसका सपना है कि उसकी पत्नी भी राइटर ही हो। शायद आप में रुचि लेने का यही एक कारण है। वह आपसे शादी करना चाहता है...उस दिन वह आपसे मिला था किंतु चाह कर भी आप से कुछ कह नहीं पाया...क्या आप उसकी जीवनसंगिनी बनना पसंद करेंगी ? अंत में उसने जो कुछ लिखा था वह बहुत चौंकाने वाला था।'
         "ऐसा क्या लिखा था उसने ?'
          "उसने लिखा था कि मैंने एक गलती की है, एक शरारत की है, एक झूठ बोला है...वैसे काजल सचमुच मेरी बहन है किंतु काजल के नाम से अब तक मैं "आकाश' आप को पत्र लिखता रहा हूँ...आप विश्वास  करें, इस शरारत के पीछे मेरी कोई बुरी भावना न थी और न ही मेरे मन में कोई छल या कपट था। आपको देखने के बाद आप से परिचय की इच्छा हुई। उन्हीं दिनों आप की एक कहानी पत्रिका में पढ़ने को मिली। आपका पता भी मुझे पत्रिका में मिल गया। लड़के के नाम से पत्र लिखता तो शायद आप मुझे जवाब ही न देतीं। बस, तभी खयाल आया कि जब मैं काजल नाम से अपनी रचना प्रकाशित करा सकता हूँ तो काजल नाम से आप को पत्र क्यों नहीं लिख सकता ?.....
      पत्रों में मैं आप से प्रेम, विवाह, दहेज, अंतर्जातीय विवाह आदि अलग-अलग विषयों पर प्रश्न कर आपके सुलझे विचारों से प्रभावित होता रहा। पत्रों द्वारा यह भी अंदाजा लग गया कि आप अविवाहित हैं और अभी तक इस प्रेम रोग से मुक्त हैं...आपको जीवनसाथी बनाने की इच्छा बलवती होने लगी...इसलिए अब इस रहस्य से परदा उठाना जरूरी हो गया था...मेरे शादी के प्रस्ताव पर विचार करें व उससे मुझे अवगत कराएँ।'
        फिर क्या हुआ ?'
       "उससे शादी में मेरी कोई रुचि नहीं थी और इतने दिनों तक गलत नाम से पत्र लिखना एक तरह का धोखा ही था...बस मैंने उसके किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया। यद्यपि हर पत्र में वह गलत नाम से पत्र लिखने की गलती के लिए क्षमा माँगता रहा...बाद में उसके पत्र आने बंद हो गए, आज कई वर्षों बाद फिर उसका यह पत्र आया है। है न अजीब घटना  ?'
        इस घटना को सुन कर मैंने राहत की साँस ली। मैं इन कुछ घंटों में न जाने क्या-क्या सोच गया था। यदि मैं धैर्य से काम न लेता, शक व जलन वश निर्मला पर सीधे चरित्रहीनता का आरोप लगा देता, उसे जलील करता तो आज बात बहुत बिगड़ गई होती। वह बहुत स्वाभिमानी है। अपने प्रति अविश्वास  से दुखी होकर न जाने वह क्या कर बैठती। हो सकता मुझे छोड़ कर चली जाती या गुस्से में आत्महत्या कर लेती...मेरा प्यारा सा नीड़ टूट कर बिखर जाता...इस शक की आग में जल कर न जाने कितने घर तबाह हो गए हैं...असल में कई बार वह सब सच नहीं होता जो प्रकट में नजर आता है। पर पत्र पढ़ कर कोई भी यही अनुमान लगाता कि ये दोनों पुराने प्रेमी रहे हैं।
         "अरे, तुम क्या सोचने लगे ? एक बात बताओ, इस पत्र का क्या करूँ ?'
         "करना क्या है। इन आकाश साहब को पत्र लिखो। जवाब तो तुम्हें तभी दे देना चाहिए था जब उसके कई पत्र आए थे। तभी स्पष्ट कर देना चाहिए था कि उससे शादी करने में तुम्हारी कोई रुचि नहीं है। बात तभी समाप्त हो जाती। हो सकता है अब तक वह भी शादी कर चुका होता। खैर, अब उसे पत्र लिख दो और सूचना दे दो कि तुम्हारी शादी हो चुकी है।'
        "तुम ठीक कह रहे हो, लिख दूँगी...एक बात बताओ यदि तुमने यह पत्र ऑफिस में खोल कर पढ़ लिया होता तो तुम मेरे बारे में क्या सोचते ? क्या तुम्हें यह नहीं लगता कि शादी से पहले मेरा इस आकाश से कुछ चक्कर था ?'
           मैं ने अभिनय करते हुए कहा-- "ऐसे एक क्या चार पत्र भी तुम्हारे प्रति मेरे विश्वास  को कम नहीं कर सकते...तुम्हारे साथ रह कर मैं तुम्हें इतना तो पहचान ही गया हूँ...अपने प्रति तुम्हारी निष्ठा पर मुझे कभी शक नहीं हो सकता...तुम्हें पाकर मैं बहुत खुश हूँ।'
       मैं निर्मला के कुछ और निकट चला गया था फिर निर्मला ने प्यार से मेरे कंधे पर अपना सिर टिका दिया।

                                                       ( मेरे  दूसरे  कहानी संग्रह - उजाले दूर नहीं से   )
        
          -पवित्रा अग्रवाल
 
email - agarwalpavitra78@gmail.com

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