रविवार, 13 मार्च 2016

बदला

कहानी

                           बदला  

                                                 पवित्रा अग्रवाल  
   
       सीखचों में बंद जेल की अभिशप्त जिंदगी जीते-जीते कुँवर दीप सिंह अब ऊब चुका है। तनिक एकांत पाते ही उसके मस्तिष्क में विचारों का अंधड़ उठ खड़ा होता है।
       कल रूपा मिलने आई थी। वह तो मिल कर तभी लौट गई थी किंतु उसकी आवाज अभी तक उसके कानों में गूंज रही है। लगता है चारों दिशाओं से उसकी आवाज प्रतिध्वनित होकर एक तीखे शोर के साथ उसके कान के पर्दों को फाड़ डालेगी -"सुनो यह तुमने अच्छा नहीं किया, किसी का जीवन लेकर तुम्हें क्या मिला ? बोलो न, तुम्हें क्या मिला ? कुछ तो सोचा होता। एक बात बताऊँ ?.. तुमने बदला लेने के लिए हत्या भी की तो एक निर्दोष, निरपराध व्यक्ति की ! तुमने सोमू की हत्या क्यों की ? झगड़ा तो उसके बड़े भाई से हुआ था न ? जानते हो अपने बड़े भाई से सोमू की कभी खटपट हो गई थी। इस वजह से उन दोनों भाइयों में आपस में बोलचाल तक नहीं थी। उस निर्दोष की आहों की ज्वाला में हमारी पारिवारिक शांति, हमारा जीवन जल रहा है, जलता रहेगा। उसकी तड़पती भटकती आत्मा हमें चैन से नहीं रहने देगी।'
       कई बार यह सब सोचते-सोचते उसके दिमाग की नसें तन कर फटने को हो आती हैं। मन करता है अपने बाल नोच डाले। जमीन पर मार-मार कर सिर फोड़ ले या फिर बापू को ही...
       बापू कभी मिलने आते भी हैं तो वह कुछ क्षणों के लिए सँजोया हुआ संतुलन फिर खोने लगता है। उन्हें दूर से देखते ही उसके चेहरे के भावों में यकायक तीव्रता से परिवर्तन होने लगता है...मुट्ठियाँ बँध जाती हैं...आँखों में लाल डोरे खिंच आते हैं और वह  हिंस्र  पशु सा चीख उठता है-- "बापू मत आओ तुम मेरे पास, तुम मेरे पिता नहीं, दुश्मन हो, तुमने बदला सोमू या उसके भाई से नहीं बल्कि मुझ से व मेरे परिवार से लिया है।...
     तुम अपना अधिकांश जीवन तो जी चुके और कितने दिन जीना था तुम्हें ? पर मैं ने अभी क्या देखा है ?... मात्र चौबीस बसंत और अब ये अनंत, असीम पतझड़, कभी खत्म न होने वाला पतझड़। तुमने यह भी नहीं सोचा कि अपने अपमान का बदला लेना था तो स्वयं लेते, मेरे जीवन से खेलने का तुम्हें क्या हक था ? मेरी ही बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी जो तुम्हारी बातों में आ गया। जान भी ली तो एक मासूम निरपराध व्यक्ति की। मेरे बीबी-बच्चों की तरह उसकी बीवी भी मुझे कोसती रहेगी। दुश्मनी उसके भाई से थी, सोमू से नहीं ! बड़े भाई की सजा छोटा भाई क्यों भुगते ? बाप का बदला बेटा क्यों ले ?
     मैं उसे मारना नहीं चाहता था। शिकार की तलाश में मुझे साथ लेकर घूमते बापू तुमने मुझे सोचने का एक क्षण भी नहीं दिया। सोमू को देखते ही तुमने कहा - "शिकार सामने है यदि तू सच्चे ठाकुर से पैदा है तो उसे इसी क्षण ठंडा कर दे।'
 -"किंतु बापू तुम्हारा झगड़ा तो उसके बड़े भाई से हुआ था ? ' उसने प्रतिवाद किया।
 -"सब आस्तीन के साँप हैं । मार दे, सोच विचार कैसा ? मौका हाथ से निकल जाएगा।'
     मैंने निशाना उसके पैर पर साध कर मारा था किंतु तुमने फौरन बंदूक की नली उसके सीने पर कर दी। वह पीड़ा से कराह उठा था--मुझे क्यों मारते हो ? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ठाकुर ?'
     किंतु उसकी एक न सुनी,तुमने उसकी जान ले ली.... तुमने कहाँ मैंने।
 जेल में मिलने आए दोस्त नरेश ने भी कहा था--"दीप तुम तो पढ़े-लिखे समझदार युवक थे, तुम्हें यह क्या सूझी ? शांत मन कुछ तो आगा-पीछा सोचा होता। हत्या करना सजा देना तो नहीं है ? सजा तो तुमने स्वयं को ही दे ली। वह तो कुछ देर छटपटा कर मौन हो गया। बदला केवल जान लेकर ही लिया जा सकता था क्या ? फिर बदला लेने लायक ऐसी घटना भी भला क्या घटी थी ? साधारण सी कहा-सुनी का यह अंत। दो परिवार नष्ट हो गए।'
     हाँ उसने ठीक ही तो कहा था कि "दो परिवार नष्ट हो गए।' बात भी क्या थी ? बस यही कि सोमू के भाई शराब पिए हुए नौटंकी के समय किसी से लड़ - झगड़ रहे थे तो बापू को गुस्सा आ गया था,उन्होंने  फटकारते हुए कहा था --
 "क्या उधम मचा रखा है ? न साले खुद देखते हैं और न किसी को देखने देते हैं। बाहर जाकर लड़ो  मरो, हमारा मजा किरकिरा क्यों करते हो ?... धक्का देकर निकाल दो इन्हें बाहर।'
      इसी बात पर दोनों आपस में भिड़ गए थे। मार पीट तक की नौबत आते देख कर लोगों ने दोनों को अलग-अलग कर दिया था। एक-दूसरे पर गंदी गालियों की बौछार करते, धमकियाँ देते दोनों पृथक दिशाओं को चल दिये थे. इसी पर बापू ने उनसे बदला लेने की ठान ली थी।
      दीप सोचता है कि गलती बापू ने की थी। वहाँ अन्य इतने लोग नौटंकी देख-सुन रहे थे किसी के झगड़े के मध्य बापू को ही बीच में बोलने या गालियाँ देने की क्या जरूरत थी ? किंतु बापू का ठाकुरी अहम जागृत हो गया था -- "उसकी यह हिम्मत कि ठाकुर को गाली दे जाए ? भुगत लूँगा उसे भी, मिटा दूँगा उसका वंश।'
 और बापू का यही ठाकुरी दंभ हमें ले डूबा। नरेश ठीक ही कह रहा था कि सोमू तो कुछ देर छटपटा कर जीवन मुक्त हो गया किंतु अब मेरा यह जीवन तिल-तिल कर मिटते इस काल कोठरी में ही बीतेगा।
      उसे रूपा का स्मरण हो आया। वह कैसे रूपा के पीछे दीवाना सा घूमता था और तीन वर्ष पूर्व ही उसे ब्याह कर लाते समय वह आत्मविभोर हो खुशी से झूम रहा था जैसे कोई किला फतह कर आया हो।
 अब वह कितनी दुर्बल हो गई है। उसकी झील सी गहरी बड़ी-बड़ी काली आँखों को क्या हो गया है ? चारों तरफ काले घेरे उभर आए हैं। उसके स्वयं कुछ न कहने पर भी उसकी आँखों का सूनापन सब कुछ कह जाता है। उस दिन न चाहते हुए भी वह बोल उठा था--"रूपा कुछ भी नहीं बोलोगी ? अपनी क्या हालत बना ली है ?' इसके आगे उसकी वाणी अवरुद्ध हो गई थी, स्वर ही नहीं निकले थे।
     वह कुछ देर उसे चुप-चुप सी देखती रही थी किंतु वह उससे अपनी निगाह मिला पाने की सामर्थ्य  नहीं जुटा पा रहा था। अपराधी सा नजरों को किसी और दिशा में घुमा कर शून्य में ताकता रहा था।
        तब रूपा के शब्द उसे कहीं दूर से आते प्रतीत हुए थे-"मैं यह अपमानित जीवन नहीं जी सकती। राह चलते लोग उँगली व आँखों से इशारा करके एक-दूसरे को बताते हैं-"सोमू की हत्या इसी के पति ने की है...यह सोमू के हत्यारे की बीवी है---मन होता है डूब मरूँ।' कहते-कहते वह बिलख उठी थी।
      गोद में उसका अपना बच्चा भी माँ के स्वर में स्वर मिला कर रोता हुआ, अपने नन्हें-छोटे हाथों को मारने के लिए ऊपर उठाकर उसे गुस्से से घूरने लगा था मानो कह रहा हो---"मेरी माँ को तुम्हीं ने रुलाया है ! तुम्हीं ने मारा है।' उस समय वह अपने ही बच्चे की नजर में कितना अजनबी हो उठा था।
        बदला...बदला...उसने बदला किससे लिया ? सोमू से...सोमू के भाई से ? सोमू की पत्नी से ? रूपा से ? अपने बच्चे से या स्वयं से ? वह कुछ नहीं समझ पाता और अपने बालों को नोंचने लगता है।


( यह कहानी  मेरे दूसरे कहानी संग्रह    'उजाले दूर नहीं ' से ली गई है )

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--पवित्रा अग्रवाल