कहानी
रिश्ता मैत्री का
पवित्रा अग्रवाल
दरवाजा खोलते ही उसकी नजर लिफाफे पर पड़ी. लिफाफा उठाया तो स्तब्ध रह गई. बरसों बाद भी लिखावट पहचानने में उसे एक पल भी नहीं लगा. शेलेश की लिखावट तो वह हजारों में भी पहचान लेगी ..उसने झटपट लिफाफा खोला –
‘प्रिय नीरजा
आशा है तुम स्वस्थ ,प्रसन्न होगी .शारीरिक मानसिक यातनाएं पाने के लिए तो मैं ही बहुत हूँ और सच मानो तो इस का हकदार भी हूँ .यह सब मुझे मिलाना ही चाहिए था .
तुम्हारी भेजी गई दीपावली और नव वर्ष की शुभकामनाएं मुझे हर वर्ष नियमित रूप से मिलती रहीं पर शुभकामनाएं भेजना तो दूर ,मैं तुम्हें कभी धन्यवाद की एक लाईन भी नहीं लिख सका ,किस मुंह से लिखता ?
इधर पिछले कुछ वर्षों से इच्छा होती रही की तुम्हें लौटा लाऊँ किन्तु साहस नहीं जूटा सका .अब किसी काम में न तो मन लगता है और न शरीर समर्थ है.एक महीने से बिस्तर से भी नहीं उठ सका हूँ ,जीवन में अँधेरा ही अँधेरा है .कहीं रोशनी की कोई किरण नजर नहीं आती .
कमजोरी इतनी है कि यह पत्र भी तुम्हें मुश्किल से लिख पा रहा हूँ....बहुत भोगा है मैं ने.अब तो शायद मौत भी निकट है ...मरने का मुझे कोई गम नहीं ,मैं जीना भी नहीं चाहता .सोते जागते हर पल ,हर क्षण बस तुम याद आती हो .अपराध बोध से मन बोझिल है ... मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिए हैं .सप्तपदी के समय जीवन भर साथ निभाने की शपथ खाकर भी तुम्हें धोखा दिया .इस ख्याल ने मुझे चैन से जीने नहीं दिया और अब मरने भी नहीं देता ....
क्या तुम एक बार आ सकोगी ?तुम्हें बिना देखे एक लम्बा अर्सा बीत गया .एक बार तुम्हें देखना चाहता हूँ ,तुम तो मेरा पहला प्यार थीं .तुम्हें किन रिश्तों ,किन संबधों की सौगंध दिलाऊँ ? तुम मैत्री के रिश्ते को स्थाई मानती थीं न ? बस तुम्हें उसी मैत्री की सौगंध है ,तुम जरुर आना ....मुझे तुम्हारा इंतजार रहेगा .
तुम्हारा शैलेश
पत्र पढ़ कर मन दुखी हो जाता है ,चाह कर भी उसे कोस नहीं पाती .न उसकी इस हालत पर ख़ुशी अनुभव कर पाती हूँ .भले ही उसने मुझे ठुकराया ,अकेलेपन के इस रेगिस्तान में झुलसने को छोड़ दिया फिर भी कहीं कोई नाजुक सा सूत्र था जो जुड़ा रह गया था .क्या था वह सूत्र ? शायद वह सूत्र था मैत्री का .स्मृतियाँ अठारह वर्ष पीछे लौट जाती हैं .
‘ऐ शैलेश की माँ सुना तुमने,पडौस के लाला जी के नाती हुआ है ' पड़ोसन ने कहा
‘अच्छा... अभी तो ब्याह हुआ था मुश्किल से नौ –दस महीने हुए होंगे,भाग्यवान हैं वह लोग .’ – सास ने निश्वास छोड़ा था
वह माँ के इस निश्वास का कारण जानती है ‘कारण वह स्वयं ही है जो पांच साल में भी पोते पोती का मुंह नहीं दिखा सकी .वह जानती है यह बातचीत हमेशा की तरह इसी बिंदु पर आकर रुकेगी –
‘मैं तो अभागी हूँ बहन ,एक ही बेटा है उसके भी कोई औलाद नहीं .लगता है वंश यहीं समाप्त हो जाएगा .’
‘सुनो आज कल यहाँ एक बाबा आये हुए हैं ,तुम बहु को वहां क्यों नहीं ले जातीं ? सुना है उनके आशीर्वाद से कई निसंतानों की गोद भर गई है’
‘वह जाए तब तो ले जाऊं.एक बार कहा था तो टाल गई.पुनः कहा तो बोली शैलेश को ले जाइए...एसी औरत किस काम की जो वंश ही मिटा दे .’
यह चर्चा सुन कर उसके अंदर ज्वालामुखी सुलगाने लगते हैं .वह क्या करे सब कुछ अपने हाथ में तो नहीं होता.बच्चे की चाह क्या उसे नहीं है .अपना दुःख वह किस से कहे ,मन ही मन घुटती है.इन्ही मानसिक तनावों से बचने और स्वयं को व्यस्त रखने के लिए उसने नौकरी नहीं छोड़ी .शादी के बाद शेलेश और उसकी माँ ने कहा था घर में पैसे की कोई कमी नहीं है तुम चाहो तो नौकरी छोड़ सकती हो’ नौकरी का उसे भी कोई शौक नहीं है .उसने पहले ही सोच रखा था कि घर में संतान आने के बाद वह नौकरी छोड़ देगी.
‘तुम शैलेश का दूसरा विवाह क्यों नहीं कर देतीं ?’पड़ोसन ने सुझाव दिया
‘कैसे कर दूं दूसरा ब्याह ...कानून इसकी इजाजत नहीं देता .पहले का जमाना अच्छा था .अब तो दूसरा ब्याह तभी हो सकता है जब पहले वाली पत्नी मर जाये या तलाक हो जाए .’
‘अरे शैलेश की माँ, तुम भी क्या बातें करती हो...अब भी सब कुछ होता है .मेरे भाई ने कुछ साल पहले दूसरा ब्याह किया था ,ठाट से रह रहा है .’
‘यही तो मैं कहती हूँ पर शैलेश माने तब न .पहले कहती थी तो बिगड़ पड़ता था लेकिन अब चुप हो जाता है फिर भी उससे बार बार कहने की हिम्मत नहीं पड़ती .फिर मैं पत्नी को छोड़ देने को तो नहीं कहती ...’
नीरजा सहम जाती है .क्या अब शैलेश दूसरे ब्याह की बात का विरोध नहीं करते ,चुप हो जाते हैं ....कहीं मन ही मन दूसरे विवाह की तैय्यारी तो नहीं कर रहे ?बिछोह की कल्पना करके वह विचलित हो उठती है ...नहीं शैलेश एसा नहीं कर सकते .क्या वह वर्षों के प्यार ,आत्मीय संबन्धों को एक संतान के अभाव में तोड़ देंगे ?नहीं एसा वह कैसे कर सकते हैं ?
वैसे उसने भी महसूस किया है की इधर शैलेश उदास रहने लगे हैं .उनका उत्साह ,उल्लास मानो चुक सा गया है .रात को थक हार कर घर लौटना ,कभी खाना खालेना कभी कहना दोस्त के यहाँ खा कर आया हूँ फिर यह भी नहीं पूछना कि तुम ने नहीं खाया होगा ,तुम खालो .
उस दिन करवा चौथ थी,उसने भी व्रत रखा था.इन व्रत उपवासों में उसकी कभी भी आस्था नहीं रही फिर भी जो जो व्रत उपवास शैलेश की माँ कहती थीं वह रख लेती थी.क्यों कि वह उन्हें दुखी नहीं करना चाहती थी .वैसे भी उसने जिसे दिल से चाहा है,रीति रिवाज के नाम पर ही सही ,उसके लिए एक दिन उपवास रखने में उसे कोई परेशानी नहीं होती थी .यों कभी कभी उपवास धार्मिक दृष्टि से न सही स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उपयोगी होता है.
चाँद कब का निकल चुका था .वह भूखी इंतजार करती रही कि हमेशा की तरह शैलेश के आने पर साथ खाना खाएगी .रात को लगभग एक बजे वह लौटा था .
‘आने मैं बहुत देर करदी ...खाना ला रही हूँ .’
‘नहीं मैं खाना खाकर आया हूँ ’कहते हुए कपडे बदले और पलंग पर जाकर लेट गया .वह भी बिना खाए पिए बिजली बुझा कर लेट गई थी .
वह कल्पना कर रही थी की शैलेश अभी उठ कर पास आ बैठेंगे और कहेंगे – ‘नीरजा तुमने खाना नहीं खाया होगा ?स्वयं को कष्ट देकर मुझे यों न सताओ,उठ कर खाना खा लो . उसे याद है जब विवाह के बाद पहली बार उसने करवा चौथ का व्रत रखा था तो वह बिगड़ने लगे थे – नीरजा यह क्या पागलपन है .वैसे ही हैल्थ बहुत अच्छी है न ,...क्या जरुरत है व्रत रखने की ?’
‘तुम भी खूब हो साल में एक दिन, एक समय न खाने से क्या फर्क पड़ता है ?’
‘ठीक है तो फिर मैं भी व्रत रखूंगा .’
वह खिलखिला कर हंसी थी ‘यह व्रत तो पत्नियाँ रखती हैं .अगले जनम में तुम पत्नी बनना,तब यह व्रत रखना’
‘ मैं तो व्रत रखूंगा,तुम मेरे लिए और मैं तुम्हारे लिए ’
माँ ने सुना तो बहुत हंसी थीं .
अब शैलेश इतना क्यों बदल गए हैं ,वह सोचती रही और आखों से आंसू बहते रहे.
रात को देर से घर लौटना शैलेश की आदत बनती जारही थी .रात के ग्यारह बज गए शैलेश अभी तक नहीं लौटे थे.उनके बदलते रंग ढंग और व्यवहार से वह हरदम आहत होती और सोचती रहती कि शैलेश को यह क्या होता जा रहा .क्या यह वही शैलेश हैं जो दसवीं से एम.एससी तक साथ साथ पढ़े थे. शादी से पहले अच्छे मित्र रहे और उसी मित्रता को जिन्दगी भर हर स्थिति में साथ निभाने के लिए शादी की और यह भी तय किया था कि पति पत्नी की तकरार का प्रभाव अपने मैत्री सबंधों पर कभी नहीं पड़ने देंगे .
जूतों की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ ,उसके विचारों का ताँता टूट गया,शैलेश आगये थे .दोनों चुप रहे ,कोई किसी से कुछ नहीं बोला .शैलेश ने कपड़े बदले और लाइट बुझा कर बिस्तर पर लेट गया . वह भी करवटें बदलती रही .उनके संबंधों में एक ठहराव सा आगया था.दूरी दिन पर दिन बढती जारही थी.जिसमें उसका दम घुटने लगा था .उठ कर उसने खिड़की का पर्दा हटा दिया ,चांदनी कमरे में बिखर गई थी .
शैलेश को आँखों पर हाथ रखे ,उदास लेटे देख कर उसका मन भर आया .पास होकर भी दोनों कितनी दूर हैं ,साथ होकर भी अकेले ,आखिर क्यों ?वह उसके सिरहाने जाकर बैठ गई .असहय मौन को तोड़ने के लिए उसने सहज स्वर मैं कहा –‘सो गए ‘
‘नहीं तो .’
‘आज फिल्म देखने गए थे क्या ?’
‘नहीं कोहिली अपने घर ले गया था...उसका बेबी बड़ा स्वीट है .मुझे टॉफी वाले अंकल कहता है .उसकी मीठी मीठी बातें मुझे वहां खीच चले जाती हैं.’
शायद उसने बच्चे का जिक्र सहज मन से ही किया होगा पर नीरजा को कहीं चोट लगी .लगा जैसे जानबूझ कर सुनाया जा रहा है .फिर भी वह सहज होंने की चेष्टा करती है – ‘शैलेश तुम लौटने में बहुत देर कर देते हो ...तुम्हारे बिना मैं भी बहुत अकेलापन महसूस करती हूँ .’
‘जल्दी लौट कर भी क्या करूँ? यहाँ मेरा दम घुटता है ....घर में कितना सूनापन रहता है....सुनो माँ ने तुम से कहीं चलने के लिए कहा था ...गई क्यों नहीं ?’
अक्सर माँ की कटु बातें उसे निसंतान होने के कारण सुननी पड़ती हैं .कितनी ही बार उसके मन में आया है की शैलेश से कहे ताकि मन का बोझ कुछ कम हो जाये किन्तु इस बारे में कुछ भी कहना उसे स्वयं को नंगा कर ने जैसा लगता रहा है.बस इसी लिए वह चाह कर भी कुछ नहीं कह पाती .
‘माँ तो रोज ही कहीं न कहीं चलने को कहती रहती हैं.कालेज पढ़ाने जाऊं ,घर का काम करूँ या फिर सयाने दीवानों के पास चक्कर लगाती फिरूं ? वैसे यह सब न मुझे पसंद है और न मेरा इस में विश्वास है .’
‘लेकिन तुम्हें जाना चाहिए था .कुछ नहीं तो माँ का मन ही रह जाता....एक पोते या एक पोती के लिए वह कितना तड़प रही हैं .उनका कोई दूसरा बेटा भी तो नहीं है,जहाँ अपनी इच्छा पूरी करने का इंतजार कर लेतीं .’
मन हुआ कहे उनकी इच्छा पूरी करने के लिए मंदिर- मजारों ,सयाने- दीवानों के तुम खुद क्यों नहीं चले जाते ...वैसे भी शादी को पांच साल ही हुए हैं...लोगों के तो शादी के दस बारह साल बाद भी बच्चे हुए हैं .मेडिकल चैकअप में हम दोनों में ही कोई खराबी नहीं आई है . ज्यादा ही जल्दी है तो एक बच्चा गोद लिया जा सकता है .
लेकिन वह कुछ नहीं कह पाती .यह सब समझने की बुद्धि तो शैलेश में भी है.कुछ कहने से बात बढ़ेगी ही और वह किसी तकरार में नहीं पड़ना चाहती .दोनों के बीच खाई दिन पर दिन चौड़ी होती गई .शैलेश हरदम चिड़ाचिडाये रहते,बात बात पर खीज उठते,सामान्य शिष्टाचार भूल कर दूसरों के सामने भी बुरा भला कह कर अपमान कर बैठते .एक दिन एसे ही किसी प्रसंग से आहत हो कर वह बोली थी –‘शैलेश मैं देख रही हूँ की तुम मुझे इस घर में और बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हो ,मेरे मुंह से कोई बात निकलते ही काट खाने को दौड़ते हो.एसा कब तक चलेगा ?...रोज रोज की झिक झिक से अच्छा है हम अब अलग हो जाएँ ...तुम भी तो यही चाहते हो न ?’
‘हाँ होजाओ अलग ,छोड़ दो मेरा पीछा...मुझे तुम से छुटकारा चाहिए ,देदो तलाक .
‘तलाक ...! तलाक नहीं दे सकती '
‘किन्तु मुझे तलाक चाहिए और ले भी लूँगा .’
‘किस आधार पर ?’
‘आधार तो समय आने पे ढूँढ लिए जायेंगे ‘
वह अन्दर तक कांप उठी थी .निसंतान होना तलाक के लिए कोई वाजिव कारण नहीं है,इस आधार पर उसे तलाक नहीं मिल सकता .तलाक के लिए झूठे,गलत, गंदे किस्से गढ़े जायेंगे...वह सब कुछ सह सकती है किन्तु चरित्र पर आक्षेप नहीं लेकिन बिना इस के वह तलाक ले नहीं पायेगा .
‘शैलेश मैं बहुत मानसिक यातनाएं भोग चुकी हूँ ,अब और कष्ट मत पहुँचाओ .कानूनन तलाक की कोई जरुरत नहीं है .मैं खुद तुम से बहुत दूर चली जाऊंगी .तुम निसंकोच अपनी नई गृहस्थी बसालो.’
‘कभी तुम ने कोई दावा किया तो मैं तो मुसीबत में पड़ जाऊँगा .’
‘ अब हमारे बीच बचा ही क्या है जिस के लिए मैं कोई दावा करूंगी .अच्छा है मेरी नौकरी अभी सही सलामत है .अतः अपने लिए मेरे पास धन दौलत की कभी कमी नहीं रहेगी .अपनी पत्नी पर न सही ,अपनी व उसकी मैत्री पर भी विश्वास नहीं रहा ? कहो तो स्टेम्प पेपर पर लिख कर दे दूँ ?’
यह सब कहते हुए उसमें इतनी स्थिरता व साहस न जाने कहाँ से आगया था कि प्रकट में न वह तनिक भी विचलित हुई और न आवाज में कोई लड़खड़ाहट ही आई .
मित्रता शब्द सुनते ही शैलेश के चहरे पर एकाएक परिवर्तन आगया .वह एक शब्द भी बिना बोले घर से बाहर निकल गया .
और कुछ दिनों में ही वह अपना तबादला करा कर उस घर से ही नहीं, उस शहर से भी बहुत बहुत दूर चली गई .
बाद में उसने सुना था शैलेश ने दूसरी शादी करली है .फिर सुना प्रथम प्रसव में पुत्र को जन्म देकर पत्नी चल बसी .कुछ दिनों पहले ही किसी ने बताया था की शैलेश का पंद्रह – सोलह वर्ष का बेटा बुरी संगत में पड़ कर ,घर छोड़ कर कही चला गया है .
फोन की घंटी से उसका ध्यान भंग हुआ .शाम के सात बज गए थे ,वह अभी तक अतीत में विचरण करती रही थी .पत्र अभी भी उसके हाथ में था.तीन घंटे का समय अभी भी उसके हाथ में है ...उसे एक बार जाना ही होगा .
उसने फोन का रिसीवर उठाया .उसके साथ काम करने वाली उसकी प्रिय सखी सुजाता थी .उसने सुजाता को पूरी बात बता कर आज ही रात को शैलेश के पास जाने की सूचना दी.
सुजाता ने कहा ‘तलाक तो तुम्हारे बीच हुआ नहीं है, क्या पत्नी के नाते जाना चाहती हो ?’
‘वह रिश्ता तो कब का मर चुका है .शैलेश बहुत बीमार है ,दोस्त के नाते एक बार उसे देखने जाना चाहती हूँ '
शैलेश के घर के सामने वह ऑटो से उतरी.उसे ऑटो का किराया देकर दरवाजे पर आई.दरवाजा आधा खुला था फिर भी एकाएक घर में घुसते उसे संकोच हुआ.कॉल बैल बजने पर अन्दर से आवाज आई ‘दरवाजा खुला है‘अन्दर आजाओ .’
घुसते ही उसकी नजर माँ पर पड़ी .उनके सब बाल सफ़ेद हो गए थे ,दुबली भी हो गई थीं .उसे पहचानते ही माँ नजरें नीची किये उठ कर दूसरे कमरे में चली गई .आखों पर हाथ रखे शैलेश लेटे थे .उनका रंग पीला पड़ गया था .कई दिनों से शेव भी नहीं बनी थी .माथे पर हाथ रख कर उसने पुकारा –‘शैलेश .’
शैलेश ने चौंक कर उसे देखा .पहचानते ही उसके चहरे पर मुस्कराहट आगई ‘नीरजा तुम आगई -? कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा ?’
‘सपना नहीं है, मैं सचमुच आई हूँ ‘
शैलेश के कमजोर पड़े पीले हाथों ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और माँ को पुकारा ‘देखो माँ नीरजा आगई ‘मैं कहता था न जरुर आएगी ‘...माँ तो बहुत वर्षो से पीछे पड़ी थीं कि तुम्हें वापस ले आऊँ लेकिन मुझ में ही साहस नहीं था .अब तुम्हें नहीं जाने दूंगा’ ...उसने नीरजा का हाथ अपनी आँखों पर रख लिया था .उसके अश्रु बह कर नीरजा के हाथों को भिगो रहे थे किन्तु वह शांत थी ,निशब्द .
चार –पांच दिन तक नीरजा उसकी देख भाल करती रही.माँ की आँखों में भी पश्चाताप के आंसू थे -'बेटी मैं तेरी गुनाहगार हूँ .शैलेश भी मन ही मन मुझे ही दोषी समझता है .वह तुझे कभी नहीं भूल पाया ....अब उसे तू सम्हाल .’
नीरजा चुपचाप सुनती रही ,कहा कुछ नहीं .शैलेश को देखने उसके परिचित ,मित्र,पडौसी आते ही रहते थे .जो असल में शैलेश के बहाने उसे देखने आरहे थे.
उनकी फुसफुसाहट भी उसके कानों में पड़ती थीं –‘कैसी लक्ष्मी सी बहु है ...बीमारी की बात सुनते ही दौड़ी चली आई .अपनी जिंदगी तो बेचारी ने यों ही तपा दी...चाहती तो दूसरी शादी भी कर सकती थी .देखो तो देख भाल में रात दिन एक कर दिए हैं...पत्नी को छोड़ा भी तो संतान के लिए...बेटे ने क्या निहाल कर दिया ?'
कभी कभी कानाफूसी में उस पर भी आक्षेप होते – ‘हे भगवान ये कैसी औरत है ..न मांग में सिन्दूर ,न पैरों में बिछिये .पति ने छोड़ दिया था तो क्या हुआ ,जिन्दा तो है .... सुना है दोनों का विधिवत तलाक भी नहीं हुआ है ,जमीन - जायदाद पर अभी भी उसका ही हक़ है .इस घर में पत्नी के नाते उसके सारे अधिकार सुरक्षित हैं ...अपना हक़ नहीं छोड़ना चाहिए '
यह सब चर्चाये सुन सुन कर उसका सर दुखने लगता है .वापस जाने का मन भी होता है .शैलेश के पास आराम कुर्सी पर बैठे बैठे उसे झपकी लग गई थी .माँजी के करुण क्रंदन से हडबडा कर उसने आँखें खोल दीं.माँ जी शैलेश की छाती पर सिर रखे करुण विलाप कर रही थीं,पास में दूध का गिलास लुढ़का पड़ा था . नीरजा स्वयं भी चेतना शून्य सी हो गई थी ,चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही थी .मौत को इतने निकट से उसने पहली बार देखा था .
पड़ोसियों ने आकर माँ को शैलेश से अलग किया और शव को आँगन में रख दिया .वह निश्चेष्ट सी न जाने कितनी देर बैठी रही .तभी एक बूढी औरत उसके पास आई और बोली बहु जो होना था होगया ,ऐसे कब तक बैठी रहेगी .बाहर चल.’
शव के पास उसे बैठा कर चूड़ियाँ तोड़ने की कोशिश करते देख वह झटके से उठ कर खड़ी होगई – ‘आप ये क्या कर रही हैं ? ...मैं उनकी पत्नी नहीं मित्र हूँ.उनकी पत्नी तो मर चुकी है .’ सब लोग कौतुहल से उसे देखने लगे थे .
अर्थी को बाहर लेजाते देख कर उसका मन होता है लोगों को एक बार रोक कर शैलेश को अंतिम बार देखले .निशब्द रूदन फूट पड़ता है लेकिन वह किसी से कुछ नहीं कहती .
दाह संस्कार करके सब लोग लौट आये हैं .पडौसी ,परिचित ,शैलेश के मित्र सभी लौटने लगे हैं .वह भी अटैची लेकर बाहर आँगन में आजाती है ,सोचती है माँ शायद कुछ कहेंगी पर माँ कुछ नहीं कहतीं बस जोर जोर से रोने लगती हैं . वह माँ के पास जाकर उनके कंधे पर हाथ रख कर खड़ी हो जाती है - 'माँ अब मैं जारही हूँ .मेरे लायक कभी भी कोई काम हो तो आप मुझे जरुर याद करें’ कह कर वह शैलेश के दूसरे मित्रों की तरह घर से बाहर निकल आती है .
पवित्रा अग्रवाल
ईमेल - agarwalpavitra78@gmail.com
रिश्ता मैत्री का
पवित्रा अग्रवाल
दरवाजा खोलते ही उसकी नजर लिफाफे पर पड़ी. लिफाफा उठाया तो स्तब्ध रह गई. बरसों बाद भी लिखावट पहचानने में उसे एक पल भी नहीं लगा. शेलेश की लिखावट तो वह हजारों में भी पहचान लेगी ..उसने झटपट लिफाफा खोला –
‘प्रिय नीरजा
आशा है तुम स्वस्थ ,प्रसन्न होगी .शारीरिक मानसिक यातनाएं पाने के लिए तो मैं ही बहुत हूँ और सच मानो तो इस का हकदार भी हूँ .यह सब मुझे मिलाना ही चाहिए था .
तुम्हारी भेजी गई दीपावली और नव वर्ष की शुभकामनाएं मुझे हर वर्ष नियमित रूप से मिलती रहीं पर शुभकामनाएं भेजना तो दूर ,मैं तुम्हें कभी धन्यवाद की एक लाईन भी नहीं लिख सका ,किस मुंह से लिखता ?
इधर पिछले कुछ वर्षों से इच्छा होती रही की तुम्हें लौटा लाऊँ किन्तु साहस नहीं जूटा सका .अब किसी काम में न तो मन लगता है और न शरीर समर्थ है.एक महीने से बिस्तर से भी नहीं उठ सका हूँ ,जीवन में अँधेरा ही अँधेरा है .कहीं रोशनी की कोई किरण नजर नहीं आती .
कमजोरी इतनी है कि यह पत्र भी तुम्हें मुश्किल से लिख पा रहा हूँ....बहुत भोगा है मैं ने.अब तो शायद मौत भी निकट है ...मरने का मुझे कोई गम नहीं ,मैं जीना भी नहीं चाहता .सोते जागते हर पल ,हर क्षण बस तुम याद आती हो .अपराध बोध से मन बोझिल है ... मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिए हैं .सप्तपदी के समय जीवन भर साथ निभाने की शपथ खाकर भी तुम्हें धोखा दिया .इस ख्याल ने मुझे चैन से जीने नहीं दिया और अब मरने भी नहीं देता ....
क्या तुम एक बार आ सकोगी ?तुम्हें बिना देखे एक लम्बा अर्सा बीत गया .एक बार तुम्हें देखना चाहता हूँ ,तुम तो मेरा पहला प्यार थीं .तुम्हें किन रिश्तों ,किन संबधों की सौगंध दिलाऊँ ? तुम मैत्री के रिश्ते को स्थाई मानती थीं न ? बस तुम्हें उसी मैत्री की सौगंध है ,तुम जरुर आना ....मुझे तुम्हारा इंतजार रहेगा .
तुम्हारा शैलेश
पत्र पढ़ कर मन दुखी हो जाता है ,चाह कर भी उसे कोस नहीं पाती .न उसकी इस हालत पर ख़ुशी अनुभव कर पाती हूँ .भले ही उसने मुझे ठुकराया ,अकेलेपन के इस रेगिस्तान में झुलसने को छोड़ दिया फिर भी कहीं कोई नाजुक सा सूत्र था जो जुड़ा रह गया था .क्या था वह सूत्र ? शायद वह सूत्र था मैत्री का .स्मृतियाँ अठारह वर्ष पीछे लौट जाती हैं .
‘ऐ शैलेश की माँ सुना तुमने,पडौस के लाला जी के नाती हुआ है ' पड़ोसन ने कहा
‘अच्छा... अभी तो ब्याह हुआ था मुश्किल से नौ –दस महीने हुए होंगे,भाग्यवान हैं वह लोग .’ – सास ने निश्वास छोड़ा था
वह माँ के इस निश्वास का कारण जानती है ‘कारण वह स्वयं ही है जो पांच साल में भी पोते पोती का मुंह नहीं दिखा सकी .वह जानती है यह बातचीत हमेशा की तरह इसी बिंदु पर आकर रुकेगी –
‘मैं तो अभागी हूँ बहन ,एक ही बेटा है उसके भी कोई औलाद नहीं .लगता है वंश यहीं समाप्त हो जाएगा .’
‘सुनो आज कल यहाँ एक बाबा आये हुए हैं ,तुम बहु को वहां क्यों नहीं ले जातीं ? सुना है उनके आशीर्वाद से कई निसंतानों की गोद भर गई है’
‘वह जाए तब तो ले जाऊं.एक बार कहा था तो टाल गई.पुनः कहा तो बोली शैलेश को ले जाइए...एसी औरत किस काम की जो वंश ही मिटा दे .’
यह चर्चा सुन कर उसके अंदर ज्वालामुखी सुलगाने लगते हैं .वह क्या करे सब कुछ अपने हाथ में तो नहीं होता.बच्चे की चाह क्या उसे नहीं है .अपना दुःख वह किस से कहे ,मन ही मन घुटती है.इन्ही मानसिक तनावों से बचने और स्वयं को व्यस्त रखने के लिए उसने नौकरी नहीं छोड़ी .शादी के बाद शेलेश और उसकी माँ ने कहा था घर में पैसे की कोई कमी नहीं है तुम चाहो तो नौकरी छोड़ सकती हो’ नौकरी का उसे भी कोई शौक नहीं है .उसने पहले ही सोच रखा था कि घर में संतान आने के बाद वह नौकरी छोड़ देगी.
‘तुम शैलेश का दूसरा विवाह क्यों नहीं कर देतीं ?’पड़ोसन ने सुझाव दिया
‘कैसे कर दूं दूसरा ब्याह ...कानून इसकी इजाजत नहीं देता .पहले का जमाना अच्छा था .अब तो दूसरा ब्याह तभी हो सकता है जब पहले वाली पत्नी मर जाये या तलाक हो जाए .’
‘अरे शैलेश की माँ, तुम भी क्या बातें करती हो...अब भी सब कुछ होता है .मेरे भाई ने कुछ साल पहले दूसरा ब्याह किया था ,ठाट से रह रहा है .’
‘यही तो मैं कहती हूँ पर शैलेश माने तब न .पहले कहती थी तो बिगड़ पड़ता था लेकिन अब चुप हो जाता है फिर भी उससे बार बार कहने की हिम्मत नहीं पड़ती .फिर मैं पत्नी को छोड़ देने को तो नहीं कहती ...’
नीरजा सहम जाती है .क्या अब शैलेश दूसरे ब्याह की बात का विरोध नहीं करते ,चुप हो जाते हैं ....कहीं मन ही मन दूसरे विवाह की तैय्यारी तो नहीं कर रहे ?बिछोह की कल्पना करके वह विचलित हो उठती है ...नहीं शैलेश एसा नहीं कर सकते .क्या वह वर्षों के प्यार ,आत्मीय संबन्धों को एक संतान के अभाव में तोड़ देंगे ?नहीं एसा वह कैसे कर सकते हैं ?
वैसे उसने भी महसूस किया है की इधर शैलेश उदास रहने लगे हैं .उनका उत्साह ,उल्लास मानो चुक सा गया है .रात को थक हार कर घर लौटना ,कभी खाना खालेना कभी कहना दोस्त के यहाँ खा कर आया हूँ फिर यह भी नहीं पूछना कि तुम ने नहीं खाया होगा ,तुम खालो .
उस दिन करवा चौथ थी,उसने भी व्रत रखा था.इन व्रत उपवासों में उसकी कभी भी आस्था नहीं रही फिर भी जो जो व्रत उपवास शैलेश की माँ कहती थीं वह रख लेती थी.क्यों कि वह उन्हें दुखी नहीं करना चाहती थी .वैसे भी उसने जिसे दिल से चाहा है,रीति रिवाज के नाम पर ही सही ,उसके लिए एक दिन उपवास रखने में उसे कोई परेशानी नहीं होती थी .यों कभी कभी उपवास धार्मिक दृष्टि से न सही स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उपयोगी होता है.
चाँद कब का निकल चुका था .वह भूखी इंतजार करती रही कि हमेशा की तरह शैलेश के आने पर साथ खाना खाएगी .रात को लगभग एक बजे वह लौटा था .
‘आने मैं बहुत देर करदी ...खाना ला रही हूँ .’
‘नहीं मैं खाना खाकर आया हूँ ’कहते हुए कपडे बदले और पलंग पर जाकर लेट गया .वह भी बिना खाए पिए बिजली बुझा कर लेट गई थी .
वह कल्पना कर रही थी की शैलेश अभी उठ कर पास आ बैठेंगे और कहेंगे – ‘नीरजा तुमने खाना नहीं खाया होगा ?स्वयं को कष्ट देकर मुझे यों न सताओ,उठ कर खाना खा लो . उसे याद है जब विवाह के बाद पहली बार उसने करवा चौथ का व्रत रखा था तो वह बिगड़ने लगे थे – नीरजा यह क्या पागलपन है .वैसे ही हैल्थ बहुत अच्छी है न ,...क्या जरुरत है व्रत रखने की ?’
‘तुम भी खूब हो साल में एक दिन, एक समय न खाने से क्या फर्क पड़ता है ?’
‘ठीक है तो फिर मैं भी व्रत रखूंगा .’
वह खिलखिला कर हंसी थी ‘यह व्रत तो पत्नियाँ रखती हैं .अगले जनम में तुम पत्नी बनना,तब यह व्रत रखना’
‘ मैं तो व्रत रखूंगा,तुम मेरे लिए और मैं तुम्हारे लिए ’
माँ ने सुना तो बहुत हंसी थीं .
अब शैलेश इतना क्यों बदल गए हैं ,वह सोचती रही और आखों से आंसू बहते रहे.
रात को देर से घर लौटना शैलेश की आदत बनती जारही थी .रात के ग्यारह बज गए शैलेश अभी तक नहीं लौटे थे.उनके बदलते रंग ढंग और व्यवहार से वह हरदम आहत होती और सोचती रहती कि शैलेश को यह क्या होता जा रहा .क्या यह वही शैलेश हैं जो दसवीं से एम.एससी तक साथ साथ पढ़े थे. शादी से पहले अच्छे मित्र रहे और उसी मित्रता को जिन्दगी भर हर स्थिति में साथ निभाने के लिए शादी की और यह भी तय किया था कि पति पत्नी की तकरार का प्रभाव अपने मैत्री सबंधों पर कभी नहीं पड़ने देंगे .
जूतों की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ ,उसके विचारों का ताँता टूट गया,शैलेश आगये थे .दोनों चुप रहे ,कोई किसी से कुछ नहीं बोला .शैलेश ने कपड़े बदले और लाइट बुझा कर बिस्तर पर लेट गया . वह भी करवटें बदलती रही .उनके संबंधों में एक ठहराव सा आगया था.दूरी दिन पर दिन बढती जारही थी.जिसमें उसका दम घुटने लगा था .उठ कर उसने खिड़की का पर्दा हटा दिया ,चांदनी कमरे में बिखर गई थी .
शैलेश को आँखों पर हाथ रखे ,उदास लेटे देख कर उसका मन भर आया .पास होकर भी दोनों कितनी दूर हैं ,साथ होकर भी अकेले ,आखिर क्यों ?वह उसके सिरहाने जाकर बैठ गई .असहय मौन को तोड़ने के लिए उसने सहज स्वर मैं कहा –‘सो गए ‘
‘नहीं तो .’
‘आज फिल्म देखने गए थे क्या ?’
‘नहीं कोहिली अपने घर ले गया था...उसका बेबी बड़ा स्वीट है .मुझे टॉफी वाले अंकल कहता है .उसकी मीठी मीठी बातें मुझे वहां खीच चले जाती हैं.’
शायद उसने बच्चे का जिक्र सहज मन से ही किया होगा पर नीरजा को कहीं चोट लगी .लगा जैसे जानबूझ कर सुनाया जा रहा है .फिर भी वह सहज होंने की चेष्टा करती है – ‘शैलेश तुम लौटने में बहुत देर कर देते हो ...तुम्हारे बिना मैं भी बहुत अकेलापन महसूस करती हूँ .’
‘जल्दी लौट कर भी क्या करूँ? यहाँ मेरा दम घुटता है ....घर में कितना सूनापन रहता है....सुनो माँ ने तुम से कहीं चलने के लिए कहा था ...गई क्यों नहीं ?’
अक्सर माँ की कटु बातें उसे निसंतान होने के कारण सुननी पड़ती हैं .कितनी ही बार उसके मन में आया है की शैलेश से कहे ताकि मन का बोझ कुछ कम हो जाये किन्तु इस बारे में कुछ भी कहना उसे स्वयं को नंगा कर ने जैसा लगता रहा है.बस इसी लिए वह चाह कर भी कुछ नहीं कह पाती .
‘माँ तो रोज ही कहीं न कहीं चलने को कहती रहती हैं.कालेज पढ़ाने जाऊं ,घर का काम करूँ या फिर सयाने दीवानों के पास चक्कर लगाती फिरूं ? वैसे यह सब न मुझे पसंद है और न मेरा इस में विश्वास है .’
‘लेकिन तुम्हें जाना चाहिए था .कुछ नहीं तो माँ का मन ही रह जाता....एक पोते या एक पोती के लिए वह कितना तड़प रही हैं .उनका कोई दूसरा बेटा भी तो नहीं है,जहाँ अपनी इच्छा पूरी करने का इंतजार कर लेतीं .’
मन हुआ कहे उनकी इच्छा पूरी करने के लिए मंदिर- मजारों ,सयाने- दीवानों के तुम खुद क्यों नहीं चले जाते ...वैसे भी शादी को पांच साल ही हुए हैं...लोगों के तो शादी के दस बारह साल बाद भी बच्चे हुए हैं .मेडिकल चैकअप में हम दोनों में ही कोई खराबी नहीं आई है . ज्यादा ही जल्दी है तो एक बच्चा गोद लिया जा सकता है .
लेकिन वह कुछ नहीं कह पाती .यह सब समझने की बुद्धि तो शैलेश में भी है.कुछ कहने से बात बढ़ेगी ही और वह किसी तकरार में नहीं पड़ना चाहती .दोनों के बीच खाई दिन पर दिन चौड़ी होती गई .शैलेश हरदम चिड़ाचिडाये रहते,बात बात पर खीज उठते,सामान्य शिष्टाचार भूल कर दूसरों के सामने भी बुरा भला कह कर अपमान कर बैठते .एक दिन एसे ही किसी प्रसंग से आहत हो कर वह बोली थी –‘शैलेश मैं देख रही हूँ की तुम मुझे इस घर में और बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हो ,मेरे मुंह से कोई बात निकलते ही काट खाने को दौड़ते हो.एसा कब तक चलेगा ?...रोज रोज की झिक झिक से अच्छा है हम अब अलग हो जाएँ ...तुम भी तो यही चाहते हो न ?’
‘हाँ होजाओ अलग ,छोड़ दो मेरा पीछा...मुझे तुम से छुटकारा चाहिए ,देदो तलाक .
‘तलाक ...! तलाक नहीं दे सकती '
‘किन्तु मुझे तलाक चाहिए और ले भी लूँगा .’
‘किस आधार पर ?’
‘आधार तो समय आने पे ढूँढ लिए जायेंगे ‘
वह अन्दर तक कांप उठी थी .निसंतान होना तलाक के लिए कोई वाजिव कारण नहीं है,इस आधार पर उसे तलाक नहीं मिल सकता .तलाक के लिए झूठे,गलत, गंदे किस्से गढ़े जायेंगे...वह सब कुछ सह सकती है किन्तु चरित्र पर आक्षेप नहीं लेकिन बिना इस के वह तलाक ले नहीं पायेगा .
‘शैलेश मैं बहुत मानसिक यातनाएं भोग चुकी हूँ ,अब और कष्ट मत पहुँचाओ .कानूनन तलाक की कोई जरुरत नहीं है .मैं खुद तुम से बहुत दूर चली जाऊंगी .तुम निसंकोच अपनी नई गृहस्थी बसालो.’
‘कभी तुम ने कोई दावा किया तो मैं तो मुसीबत में पड़ जाऊँगा .’
‘ अब हमारे बीच बचा ही क्या है जिस के लिए मैं कोई दावा करूंगी .अच्छा है मेरी नौकरी अभी सही सलामत है .अतः अपने लिए मेरे पास धन दौलत की कभी कमी नहीं रहेगी .अपनी पत्नी पर न सही ,अपनी व उसकी मैत्री पर भी विश्वास नहीं रहा ? कहो तो स्टेम्प पेपर पर लिख कर दे दूँ ?’
यह सब कहते हुए उसमें इतनी स्थिरता व साहस न जाने कहाँ से आगया था कि प्रकट में न वह तनिक भी विचलित हुई और न आवाज में कोई लड़खड़ाहट ही आई .
मित्रता शब्द सुनते ही शैलेश के चहरे पर एकाएक परिवर्तन आगया .वह एक शब्द भी बिना बोले घर से बाहर निकल गया .
और कुछ दिनों में ही वह अपना तबादला करा कर उस घर से ही नहीं, उस शहर से भी बहुत बहुत दूर चली गई .
बाद में उसने सुना था शैलेश ने दूसरी शादी करली है .फिर सुना प्रथम प्रसव में पुत्र को जन्म देकर पत्नी चल बसी .कुछ दिनों पहले ही किसी ने बताया था की शैलेश का पंद्रह – सोलह वर्ष का बेटा बुरी संगत में पड़ कर ,घर छोड़ कर कही चला गया है .
फोन की घंटी से उसका ध्यान भंग हुआ .शाम के सात बज गए थे ,वह अभी तक अतीत में विचरण करती रही थी .पत्र अभी भी उसके हाथ में था.तीन घंटे का समय अभी भी उसके हाथ में है ...उसे एक बार जाना ही होगा .
उसने फोन का रिसीवर उठाया .उसके साथ काम करने वाली उसकी प्रिय सखी सुजाता थी .उसने सुजाता को पूरी बात बता कर आज ही रात को शैलेश के पास जाने की सूचना दी.
सुजाता ने कहा ‘तलाक तो तुम्हारे बीच हुआ नहीं है, क्या पत्नी के नाते जाना चाहती हो ?’
‘वह रिश्ता तो कब का मर चुका है .शैलेश बहुत बीमार है ,दोस्त के नाते एक बार उसे देखने जाना चाहती हूँ '
शैलेश के घर के सामने वह ऑटो से उतरी.उसे ऑटो का किराया देकर दरवाजे पर आई.दरवाजा आधा खुला था फिर भी एकाएक घर में घुसते उसे संकोच हुआ.कॉल बैल बजने पर अन्दर से आवाज आई ‘दरवाजा खुला है‘अन्दर आजाओ .’
घुसते ही उसकी नजर माँ पर पड़ी .उनके सब बाल सफ़ेद हो गए थे ,दुबली भी हो गई थीं .उसे पहचानते ही माँ नजरें नीची किये उठ कर दूसरे कमरे में चली गई .आखों पर हाथ रखे शैलेश लेटे थे .उनका रंग पीला पड़ गया था .कई दिनों से शेव भी नहीं बनी थी .माथे पर हाथ रख कर उसने पुकारा –‘शैलेश .’
शैलेश ने चौंक कर उसे देखा .पहचानते ही उसके चहरे पर मुस्कराहट आगई ‘नीरजा तुम आगई -? कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा ?’
‘सपना नहीं है, मैं सचमुच आई हूँ ‘
शैलेश के कमजोर पड़े पीले हाथों ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और माँ को पुकारा ‘देखो माँ नीरजा आगई ‘मैं कहता था न जरुर आएगी ‘...माँ तो बहुत वर्षो से पीछे पड़ी थीं कि तुम्हें वापस ले आऊँ लेकिन मुझ में ही साहस नहीं था .अब तुम्हें नहीं जाने दूंगा’ ...उसने नीरजा का हाथ अपनी आँखों पर रख लिया था .उसके अश्रु बह कर नीरजा के हाथों को भिगो रहे थे किन्तु वह शांत थी ,निशब्द .
चार –पांच दिन तक नीरजा उसकी देख भाल करती रही.माँ की आँखों में भी पश्चाताप के आंसू थे -'बेटी मैं तेरी गुनाहगार हूँ .शैलेश भी मन ही मन मुझे ही दोषी समझता है .वह तुझे कभी नहीं भूल पाया ....अब उसे तू सम्हाल .’
नीरजा चुपचाप सुनती रही ,कहा कुछ नहीं .शैलेश को देखने उसके परिचित ,मित्र,पडौसी आते ही रहते थे .जो असल में शैलेश के बहाने उसे देखने आरहे थे.
उनकी फुसफुसाहट भी उसके कानों में पड़ती थीं –‘कैसी लक्ष्मी सी बहु है ...बीमारी की बात सुनते ही दौड़ी चली आई .अपनी जिंदगी तो बेचारी ने यों ही तपा दी...चाहती तो दूसरी शादी भी कर सकती थी .देखो तो देख भाल में रात दिन एक कर दिए हैं...पत्नी को छोड़ा भी तो संतान के लिए...बेटे ने क्या निहाल कर दिया ?'
कभी कभी कानाफूसी में उस पर भी आक्षेप होते – ‘हे भगवान ये कैसी औरत है ..न मांग में सिन्दूर ,न पैरों में बिछिये .पति ने छोड़ दिया था तो क्या हुआ ,जिन्दा तो है .... सुना है दोनों का विधिवत तलाक भी नहीं हुआ है ,जमीन - जायदाद पर अभी भी उसका ही हक़ है .इस घर में पत्नी के नाते उसके सारे अधिकार सुरक्षित हैं ...अपना हक़ नहीं छोड़ना चाहिए '
यह सब चर्चाये सुन सुन कर उसका सर दुखने लगता है .वापस जाने का मन भी होता है .शैलेश के पास आराम कुर्सी पर बैठे बैठे उसे झपकी लग गई थी .माँजी के करुण क्रंदन से हडबडा कर उसने आँखें खोल दीं.माँ जी शैलेश की छाती पर सिर रखे करुण विलाप कर रही थीं,पास में दूध का गिलास लुढ़का पड़ा था . नीरजा स्वयं भी चेतना शून्य सी हो गई थी ,चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही थी .मौत को इतने निकट से उसने पहली बार देखा था .
पड़ोसियों ने आकर माँ को शैलेश से अलग किया और शव को आँगन में रख दिया .वह निश्चेष्ट सी न जाने कितनी देर बैठी रही .तभी एक बूढी औरत उसके पास आई और बोली बहु जो होना था होगया ,ऐसे कब तक बैठी रहेगी .बाहर चल.’
शव के पास उसे बैठा कर चूड़ियाँ तोड़ने की कोशिश करते देख वह झटके से उठ कर खड़ी होगई – ‘आप ये क्या कर रही हैं ? ...मैं उनकी पत्नी नहीं मित्र हूँ.उनकी पत्नी तो मर चुकी है .’ सब लोग कौतुहल से उसे देखने लगे थे .
अर्थी को बाहर लेजाते देख कर उसका मन होता है लोगों को एक बार रोक कर शैलेश को अंतिम बार देखले .निशब्द रूदन फूट पड़ता है लेकिन वह किसी से कुछ नहीं कहती .
दाह संस्कार करके सब लोग लौट आये हैं .पडौसी ,परिचित ,शैलेश के मित्र सभी लौटने लगे हैं .वह भी अटैची लेकर बाहर आँगन में आजाती है ,सोचती है माँ शायद कुछ कहेंगी पर माँ कुछ नहीं कहतीं बस जोर जोर से रोने लगती हैं . वह माँ के पास जाकर उनके कंधे पर हाथ रख कर खड़ी हो जाती है - 'माँ अब मैं जारही हूँ .मेरे लायक कभी भी कोई काम हो तो आप मुझे जरुर याद करें’ कह कर वह शैलेश के दूसरे मित्रों की तरह घर से बाहर निकल आती है .
पवित्रा अग्रवाल
ईमेल - agarwalpavitra78@gmail.com